An Open Letter to the Himachal Chief Minister – 1st July 2013

हिमाचल के मुख्य मंत्री के नाम एक खुला पत्र

 माननीय श्री वीर भद्र सिंह जी,

सर्व प्रथम आपको जन्मदिन की शुभकामनाएं। पश्चिम हिमालय में हाल में हुई महा विपदा के चलते जन्मदिन न मनाने का आपका निर्णय सरहानीय है । किन्नौर की स्थिति का सही आंकलन करने के लिए आपका वहां व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होना भी प्रशंसा जनक है । गनीमत है कि प्रकृति का यह आक्रोश और विस्तृत नहीं था – अन्यथा उत्तराखंड एवं हिमाचल के और भी हिस्से इस की चपेट में आ सकते थे । परन्तु इस कृपा को हम बड़ी बड़ी ही अनिश्चितता, आशंका एवं भय की दृष्टि के साथ देख रहें हैं – क्योंकि इस प्रकार की आपदाओं की संभावना हिमाचल में निश्चित रूप से बनी हुई है।

 मिडिया में पर्यावरण विदों के विश्लेषण एवं लेखों के माध्यम से अब आम आदमी भी पर्यावरण असंतुलन एवं मौसम परिवर्तन की बढ़ती मार के बारे में जागरूक हो रहा है – ख़ास कर हिमालय जैसे संवेदन शील क्षेत्र में। किन्नौर इसी प्रक्रिया का एक जीता जागता उदाहरण है। यह क्षेत्र जो की शीत मरुस्थल की श्रेणी में आता है आज बाढ़ एवं भारी वर्षा जैसी घटनाओं को बारंबार झेल रहा है।

इस प्रकार की घटनाओं ने जन सामान्य के जीवन एवं आजीविका को अस्तव्यस्त कर के रख दिया है। सतलुज घाटी एवं अन्य ऊँचे इलाकों में वर्षा एवं भूस्खलन से सडकों, घरों, खेत खलिहानों, मवेशियों एवं विद्युत् परियोजनाओं इत्यादि का विनाश सर्वविदित है। विडंबना तो यहाँ है की इन सब के बावजूद इस क्षेत्र की पर्यावर्णीय संवेदनशीलता का कोई संज्ञान नहीं लिया गया है।इस क्षेत्र में बनी तीन बड़ी जल विद्युत् परियोजनाओं – और दसियों अन्य जो अभी निर्माणधीन हैं – की इस क्षेत्र की दुर्गति में प्राथमिक भूमिका रही है। इलाके में वनों की विलुप्ति और कटान, वर्षा के असंतुलन और भू – अस्थिरता के पीछे इन परियोजनाओं का बड़ा हाथ है।सैंकड़ों किलोमीटरों की सुरंगों का निर्माण, निर्माण कार्यों का चौबीसों घंटे चलना, ब्लास्टिंग, क्रशिंग, मलबे को बेहिसाब मात्रा में नदी किनारों में कना – जल विद्युत परियोजनाओं की यह सब गतिवोधियां क्षेत्र के पर्यावरण पर गंभीर प्रभाव दाल चुकीं हैं – और यदि प्रस्तावित ३० छोटी-बड़ी परियोजनाओं का निर्माण किया जाता है तो स्थिति और भी चिंताजनक हो जायेगी ।

इंडिया स्टेट ऑफ़ फॉरेस्ट्स की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार किन्नौर के पुरे क्षेत्रफल (6401 वर्ग किलोमीटर) मे से 10% से भी कमक्षेत्रों में वन बचे हैं और इसमें से 40% क्षेत्र विरल वनों के रूप में है। किन्नौर हिमाचल का एक मात्र जिला है जिसमें पिछले दस वर्षों में वन क्षेत्र में लगातार कमी आई है। उपरोक्त रिपोर्ट के अनुसार 2001 की स्थिति की तुलना में वन क्षेत्र में 7.5% की कमी आई है और यह कमी सघन वन क्षेत्रों में ज़्यादा है । हमारा पूरा विशवास है की यह कमी जल विद्युत् परियोजनाओं एवं अन्य विकास परियोजनाओं के लिए वन हस्तांतरण के कारण है। किन्नौर जैसे पर्यावर्णीय दृष्टि से नाज़ुक क्षेत्र में जलवायु एवं ऋतु परिवर्तन के लिए एक मुख्य कारण है।

उत्तराखंड के मामले में भी यह स्पष्ट हो चुका है की उन्ही क्षेत्रों में विनाश अधिक हुआ है जहां पिछले कुछ वर्षों में सर्वाधिक वन भूमि में कमी आई है । किन्नौर के बारे में भी यही आंकलन लागू होता है क्योंकि वन विलुप्ति एवं बाढ़ रुपी विपदा का सीधा सम्बन्ध है (डाउन टू अर्थ, 27 जून 2013) ।

दुर्भाग्यवश, वन भूमि का हस्तांतरण, परियोजना दर परियोजना टुकड़ों में किया जाता है व एक परियोजना के लिए भी कई चरणों में होता है । जब तक इनको सम्पूर्ण रूप में (इकोसिस्टम स्तर पर) देख कर इनके सामूहिक प्रभावों का अध्ययन नहीं किया जाएगा तब तक इन परियोजनाओं के वास्तविक प्रभाव के बारे में हम अँधेरे में ही रहेंगे।

 लाहौल स्पिती भी ऐसी ही चिंताजनक स्थिति में है । यह क्षेत्र एक शीत मरुस्थल है जहां चिनाब घाटी में बीस से अधिक जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं । जिस प्रकार सामूहिक प्रभाव के आंकलन के बिना सेली, मियार एवं अन्य परियोजनाओं पर बेधड़क काम चल रहा है, इनका लोगों के जीवन, आजीविका एवं पर्यावर्णीय सुरक्षा पर उत्तराखंड जैसी विपदा की संभावना दृढ़ हो रही है । यह भी समझने की बात है कि इन परियोजनाओं के कारण नदी तट पर स्थित सीमित वनों का विनाश निश्चित है जिसका क्षेत्र की सूक्ष्म जल वायु पर गहरा दुष्प्रभाव होगा ।

हालाँकि सरकार लगातार वनरोपण इत्यादि के वायदे करती रहती है, CAG (भारत के नियंत्रक – महालेखापरीक्षक) की 2012 की रिपोर्ट के अनुसार हिमाचल की जल विद्युत परियोजनओं में इस प्रकार के कदमों पर आंशिक रूप से भी ध्यान नहीं दिया गया है। बल्कि CAG की रिपोर्ट तो यह स्पष्ट कहती है की जल विद्युत परियोजनओं का क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन एवं भू-अस्थिरता लाने में बड़ा हाथ है । रिपोर्ट ने भूजल स्रोतों, नदी पारिस्थिकी की सततता के बने रहने पर गहरा संदेह व्यक्त किया है क्योंकि CAG द्वारा आंकलित परियोजनओं में से एक भी परियोजना ने नदी में न्यूनतम 15 % पानी छोड़ने के नियम का पालन नहीं किया था । रिपोर्ट ने वनरोपण के वायदे की अनदेखी पर भी ध्यानाकर्षण किया है। रिपोर्ट यह भी उजागर करती है की परियोजनओं को कार्यान्वित करने के लिए आवश्यक जाँच व्यवस्था, जन-माल सुरक्षा के उपाय, गुणवत्ता नियन्त्रण एवं प्रबंधन प्रक्रियाओं का गंभीर अभाव है ।

यह ध्यान देने योग्य बात है की परियोजना संबंधी सुरक्षा एक अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा है । दिसम्बर 2012 में CWC, DOE, CEA के अधिकारियों द्वारा करछम वांगतू(1200 MW) परियोजना के निरीक्षण में सर्ज शाफ़्ट में अत्याधिक रिसाव पाया गया है। यह रिसाव परियोजना ढाँचे में दरारों के कारण हो रहा था।चम्बा में चमेरा-3 परियोजना की मुख्य सुरंग में अप्रैल 2012 में भी ऐसा ही रिसाव पाया गया था। चौकाने वाली बात तो यह है की राज्य में ऐसा प्राधिकरण नहीं है जो की ‘हिमाचल प्रदेश जलविद्युत नीति 2006’ के अनुरूप परियोजनाओं की सुरक्षा, जल प्रवाह की निगरानी अथवा जांच के लिए जिम्मेदार हो। इस सब के बीच अन्य कई परियोजनाओं का निर्माण धड़ल्ले से चल रहा है- इनमें से कईयों में आज भी नदी के किनारों पर हज़ारों पेड़ों का कटान हो रहा है। यह सचमुच बहुत ही चिंताजनक मुद्दा है।

 माननीय मुख्यमंत्री जी, हमारा आपसे अनुरोध है की आप इस स्थिति को गंभीरता से लें, विशेष कर अब जब की प्रकृति हमें स्पष्ट चेतावनी दे रही है। जल परियोजना निर्माण के संदर्भ में इन आवश्यक क़दमों को शीघ्र उठाना होगा।

 राज्य में जल विद्युत परियोजनाओं की बढती संख्या देखते हुए इनका सामूहिक प्रभाव आँकलन( ना की एकल रूप में प्रभाव आंकलन) व नदियों की भार वहन क्षमता का अध्ययन अनिवार्य हो चूका है। जब तक परियोजनाओं के सामूहिक प्रभाव का अध्यन निरपेक्ष एवं विश्वसनीय विशेषज्ञों और संस्थाओं द्वारा नहीं कराया जाता और उनके सुझावों को स्वीकारा नहीं जाता तब तक सभी नई परियोजनओं के निर्माण पर तुरंत रोक लगा देनी चाहिए।

 ऊँचे क्षेत्रों एवं शीत मरूस्थलों की संवेदनशीलता को देखते हुए और इन क्षेत्रों की बढती वर्षा को देखते हुए 7000 फुट से ऊपर प्रस्तावित परियोजनाओं को निश्चित ही रद्द कर देना चाहिए। यह क्षेत्र जल विद्युत परियोजनाओं के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित कर देना चाहिए। परियोजना सम्बन्धी सुरक्षा एवं निगरानी प्राधिकरण का गठन और उसका कार्यान्वयन भी अति शीघ्र सुनिश्चित करना आवश्यक है।

 हिमाचल प्रदेश की सरकार को पर्यावरण के प्रति सजग व सचेत होने के लिए कई बार सराहा जा चुका है परन्तु इन पुरुस्कारों के योग्य हम तभी बनेगें जब प्रकृति की अपार सौगात का संरक्षण की पूरी ज़िम्मेदारी से कर पायें। यह भी विदित है की उत्तर भारत के मैदानी इलाकों की समृधि व सुरक्षा भी हिमालयी क्षेत्रों के स्वास्थ्य पर आश्रित है- इस सम्बन्ध में हमारी जिम्मेदारी और भी बड़ी एवं गंभीर हो जाती है। अतः हिमालयी क्षत्रों में पर्यावरण संरक्षण हमारी विकास की नीतियों का मुख्य आधार होना चाहिए। यदि हम मौजूदा स्तर पर अपने पहाड़ों, नदियों और वनों से खिलवाड़ करते रहेंगे तो प्रकृति की मार से बचाना हमारे लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जायेगा।

 भवदीय

 हिमधरा पर्यावरण समूह, काँगड़ा

 हिमलोक जागृति मंच, किन्नौर

 हिमालय बचाओ समिति, चम्बा

 सतलुज बचाओ जन संघर्ष समिति, मंडी

 जन जागरण एवं विकास संसथा, कुल्लू

 आजीविका बाचाओ संघर्ष समिति, रेणुका जी, सिरमौर

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An open letter to the Chief Minister of Himachal Pradesh

 Dear Shri Vir Bhadra Singh ji,

 First of all we would like to wish you a very happy belated birthday. We respect and appreciate your decision to not celebrate the day as a sign of solidarity with thousands who, at this minute, are grieving the loss and tragedy that has hit the Western Himalayas during the past two weeks. We also greatly appreciate that you were present in Kinnaur to personally assess the situation. We are certain that the scale of this Himalayan deluge could have been larger had more areas of Himachal and west of Uttarakhand been affected. A large part of Himachal, escaped what is being termed as the ‘monsoon fury’ and the resultant flash floods, and we are certain that you, like us, have already thanked the Gods for this. But we must let you know that the sigh of relief that we take is interspersed with hesitation, skepticism and fear of the imminent threat that the people of Himachal face from such disasters, which may happen sooner or later affecting more areas of the state.

 From all the analysis in the print and electronic media by experts on climate change and environment, even the common person is now aware that these kind of events are slowly becoming more common and frequently occuring in the Himalayan region. Kinnaur, which has been badly hit by the current flash floods itself is an example. Flash floods and untimely as well as incidences of cloud burst bringing heavy rains in a short interval have become common place in the area which a few years ago was more of a cold desert.

 These events have in turn disrupted lives and livelihoods of the local people. Damage to infrastructure – roads and electricity, farms, livelstock, water supply and housing due to outpours and landslides is rampant in the Satluj valley, higher altitudes. But what is most disconcerting is that despite the losses there is no recognition of the ecological fragility of the landscape. The three large hydro-electric projects that have been built and are operational in the valley, and many other which are under construction are central to exacerbation of the fragility of the area – both by bringing about deforestation, climatic changes and by affecting the land stability. Creating tunnels of several kilomteres length, carrying out 24×7 construction, blasting, crushing, haphazard muck dumping along the rive bed at the current scale has and will continue to play a destructive role if all the 30 odd projects planned on the Satluj basin are allowed to be constructed.

 According to ‘India State of Forest Report’ 2011, out of the total geographical area of Kinnaur i.e 6401 sq. kms less than 10% is under forest cover and 40% of this small forest area percentage is open forest. This is the only district where there has been a gradual decrease in forest cover in the last ten years. According to the report in comparison to 2001 data the total area under forest cover, especially dense and moderate, has reduced by 7.25%. We strongly believe that this decrease in forest cover is connected with the forest land diverted for hydro power projects and other development activites. And it is this which is exacerbating the phenomenon of global climatic change in a ecologically and geographically fragile region like Kinnaur. Even in the case of Uttarakhand it has been pointed out (Down to Earth, 27th June 2013) that the areas which were destroyed by the floods are ones where there has been maximum forest loss and deforestation over the last few years. The same holds true for Kinnaur as well, thus establishing a direct link between deforestation and extent of devastation by the floods.

 Unfortunately, the diversion of forests is carried out in a piece-meal way for each project, and sometimes for a single project in several parts. Until and unless there is a cumulative assessment of diversion of forests there is no way to assess the exact extent of ecological damage and its adverse impacts.

 Lahual Spiti is another region of concerned which is a cold desert region and around more than 20 HEPS have been planned on Chenab basin. The way the projects like Seli, Miyar and other projects coming up without assesing the cumulative impact of all the projects on fragile ecology and livelihood of people, similar issues are likely to crop up in the region too. It is important to understand that all these hydro projects are going to destroy the limited forest areas which exist on mostly along the banks of river and this will have impacts on micro climate of that region.

 While the goverment has repeatedly spoken of mitigation measures and afforestation, from the Comptroller Auditor General’s 2012 report on the performance of Hydro-electric projects in the state, these measures have not been implemented at all. Infact the CAG report has highlighted that hydro projects are posing a severe hazard both for natural ecology and stabilisation of hill slopes. The report also raised doubts on sustenance of aquatic eco system and ground water aquifers, considering that the minimum water flow of 15 per cent immediately downstream was not kept by a single power producer studied by the CAG. The report also highlights the failure of compesatory afforestation measures and found that plantation activity was highly deficient. Most importantly the report recognises that prescribed monitoring mechanisms for ensuring effective implementation of projects and project safety, quality control and other management systems were non-existent in the Department.

Please note that the issue of project safety is extremely critical. In December 2012 during an inspection by the officials of the CWC, DOE and CEA in the case of the 1200 MW Karchham Wangtoo project profuse leakages were found from the surge shaft possibly due to cracks and fissures that may have developed. Further, this is not the first time that there has been a safety issue reported for a hydro project, a similar leakage from the head race tunnel of Chamera III HEP was also found in April 2012. What is shocking is that there is no authority in the state for control and monitoring of safety and water flows as required by the Hydropower Policy 2006 of Himachal Pradesh. In the meanwhile while several hydropower projects have been/are being constructed and some are even ready for commissioning. This is a matter of serious concern.

We urge you, Honourable Chief Minister, to please take these issues with utmost seriousness, atleast now that we have been cautioned adequately. It is time to take some immediate meaures vis a vis hydropower development in the State. Considering the number of projects that have been built or are in the construction or planning stage, the collective impacts of all these projects are going to be much greater than the sum of the impacts of the individual projects. Such cumulative impacts can be assesssed only through Cumulative Environment Impact and Carrying Capacity Studies. Construction on all new projects should be kept on hold till such studies at the river basin level conducted by interdesciplinary, independent and credible organisations are conducted and their recommendations are adopted.

Also, considering the ecological fragility of the high altitude and the cold desert region of the state, which has become more vulnerable due to increase in rainfall of late, a moratorium should be placed on projects above 7000 ft of height. These should be declared as no-go areas for hydro projects. The Safety Authority for the monitoring of projects needs to be constituted and activated immediately.

The Himachal governments have always claimed accolades and awards for being a ‘green’ state. We believe that the forests, rivers and mountains are nature’s gift and there is little that we can claim as our doing for which we should be rewarded. We can be deserving of any such acknowledgement only if we work towards conservation of the precious natural resources in our region. The role of the Himalayan mountains in preservation of the resources of the plains is irreplaceable and should urgently be made the focal point of development policy in the hills. Else, if we continue to tamper at this scale with our rivers and forests we will face more of nature’s wrath, and that we will certainly deserve.

 Sincerely,

 Himdhara Environment Research and Action Collective

 Him Lok Jagriti Manch, Kinnaur

 Satluj Bachao Jan Sangharsh Samiti, Mandi

 Himalaya Bachao Samiti, Chamba

 Jan Jagran Evam Vikas Sanstha, Kullu

 Ajeevika Bachao Sangharsh Samiti, Renuka ji, Sirmaur

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