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Forest Rights is key issue for Himachal electorate: Van Adhikaar Manch submits peoples’charter on FRA to major parties contesting Lok Sabha Elections
As the polling date for 17th Lok Sabha elections draw closer in Himachal Pradesh, voices against the non-implementation of the Forest Rights Act 2006 (FRA) continue to gather momentum from different corners of the state, making it loud and clear that FRA will be one of the central poll issues here. On May 3 2019, Himachal Van Adhikaar Manch, a platform of community organisations and activists, submitted a peoples’ demand charter on FRA to all the contesting political parties of the State – INC, BJP and CPI. Individual and community forest rights recognized under the Forest Rights Act 2006 hold paramount importance for majority of the population in Himachal given the dependence on forest land, which forms 70% of the State’s geographical area. Over the last 3 years voices demanding implementation of FRA have grown louder in the state and yet the government , especially the administrative officials have been lethargic and non-committal in their responses.
The Forest Rights Act was passed by the Parliament of India in 2006, with the aim of protecting the interests as well as providing legal recognition and recording the rights of the communities dependent on forest land for their bonafide livelihoods. Section 3(1) of this act entails the recognition of rights over forest land for agriculture and habitation for ‘bonafide livelihood’ needs (not just for subsistence purposes but also for earning an income) and includes both Individual rights over land under occupation and Community rights over use, conservation and management of community forest land resources whereas the Section 3(2) of the act provides rights to the Gram Sabha to provide consent for diversion of less than 1 hectare of forest land (involving felling of not more than 75 trees) for 13 types of village development activities. “On one hand, 1900 cases have been so far sanctioned by the government under section 3(2) of the FRA whereas, though 17503 FRCs have been formed, only 129 claims have been issued titles so far under the Sec 3(1) of the Act. “In the 2018 Vidhan Sabha winter session at Dharamsala, the government promised that it will be take effective and urgent steps for speedy implementation of the act. The State Level monitoring Committee in its meeting in January 2019 had also positively taken upon the endorsements by HVAM reiterating similar promises but on the ground, the officials continue to be unaware of the provisions of the act”, remarked Akshay Jasrotia convener, HVAM.
Instead of providing any training and awareness on the act, in February the district administration of Kangra gave Panchayat Secretaries a 90 day deadline to get claims from the FRCs. In absence of any awareness about the act, FRCs are being made to send ‘nil’ or ‘zero’ claims certificates as had been earlier done in the districts of Mandi and Chamba. Adding further, Shyam Singh Chauhan, a member of the District Level Committee (Mandi) formed under the Act and also the Zila Parishad Member from Karsog Mandi quoted, said “Lakhs of occupants had applied under the 2002 policy of Regularization of Encroachments. Further, revenue and forest records too have recorded occupations on forest land for agriculture, habitation and cattle rearing, but people still hold no legal titles. They are all eligible to claim for their Individual rights under this act but have been blatantly denied their constitutional right”.
Laal Hussain, a representative of the Gujjar Community of nomadic livestock rearers from Chamba stressed, “2 lakh people of different pastoral communities who sustain by grazing livestock in pastures, categorized as ‘forest land’, are eligible for community forest rights under FRA and via this charter we want to communicate that this election we will only support those who speak of our rights and interests.”
“FRA has emerged as an important determinant of electoral polls this term not just in Himachal but across the country”, added Prakash Bhandari of Himdhara Collective.Whereas the national manifestos of Indian National Congress and CPM have explicitly stated that it will not allow unjust eviction and will implement the act in letter and spirit, BJP on the other hand has remained mute on this issue. ““In Himachal though people are looking out for the priority given to FRA by contesting electoral candidates from the State”, added Bhandari. A very big percentage of population has already been traumatized by the state governments’ betrayal on the promises of regularization of land under occupation and now live under constant paranoia of eviction. This became evident when on 11th April, a public gathering of more than 600 in Mandi together gave the slogan “Himachal Ki Janta Kare Pukar, Humein Chahiye Van Adhikar”.
Jiya Lal Negi, convener Zila Van Adhikaar Samiti from the tribal district of Kinnaur, added “Kinnaur has had the highest number of claims but these legitimate claims have been delayed on frivolous and illegal grounds going to the extent of questioning our identities as tribals and forest dwellers”. Hit by the similar apathy of government and bureaucratic hurdles in the long struggle for FRA implementation, on 23rd March in a press conference, Save Lahaul Spiti, a civil society group from Lahaul had appealed for election boycott from their area. Similar public appeals of boycott or exercising the NOTA options have echoed across many tribal villages in the State.Take for instance the case of Lippa village in Kinnaur, “Despite a long tiring struggle for our individual and community forest rights, we have faced continued injustice at the hands of the government. What other way do we have left to show our dissent in a peaceful and democratic way but to boycott the elections?” raised the residents of Lippa in their meeting with the district administration last week.
प्रेस विज्ञप्ति: 14 मई 2019 | हिमाचल के मतदाताओं के लिए वन अधिकार रहेगा प्रमुख मुद्दा: हिमाचल वन अधिकार मंच ने मुख्य राजनैतिक दलों को वन अधिकारअधिनियम 2006 पर सौपा जन-घोषणापत्र ।
हिमाचल में 17 वीं लोकसभा चुनाव की मतदान की तारीख जैसे जैसे नजदीक आ रही है, राज्य के विभिन्न इलाकों से वन अधिकार अधिनियम 2006 (FRA) के गैर-कार्यान्वयन के खिलाफ आवाज उठ रही है। इससे स्पष्ट होता है कि वन अधिकार अधिनियम 2006 इस बार मतदान में केंद्रीय मुद्दारहेगा । इसी सन्दर्भ में हिमाचल वन अधिकार मंच, जो कि सामाजिक संस्थाओं एवं कार्यकर्ताओं का एक मंच है, ने 3 मई 2019 को राज्य में सभीराजनैतिक दलों – भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को वन अधिकार क़ानून पर जन-घोषणा मांग पत्रप्रस्तुत किया। वन अधिकार क़ानून 2006 के तहत उल्लेखित व्यक्तिगत अधिकार एवं सामुदायक वन अधिकार हिमाचल कि जनता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, खासतौर से तब जब राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र में 70% क्षेत्र वन भूमि दर्ज है। पिछले 3 वर्षों में राज्य के अनेक हिस्सों से वन अधिकार को लागू करने कि मांग ने तेजी से जोर पकड़ा है लेकिन फिर भी राज्य सरकार व प्रशासन का कानून को लागू करने के प्रति रवैय्या पूरी तरह से गैर जिम्मेदाराना एवं उदासीनता भरा रहा है।
वर्ष 2006 में भारत के संसद ने वन भूमि पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर सभी समुदायों के हितों की रक्षा और उनके अधिकारों को कानूनी मान्यता देने के लिए ही वन अधिकार कानून 2006 (Forest Rights Act,2006) को पारित किया था। अधिनियम कि धारा 3(1) के तहत यह क़ानून वन पर निर्भर सभी समुदायों को तीन मुख्य प्रकार के अधिकार देता है- व्यक्तिगत अधिकार(निवास व खेती के लिए अधिकृत कि गयी वन भूमि पर), सामुदायिक वन भूमि संसाधनों के उपयोग का अधिकार व सामुदायिक वन भूमि की सुरक्षा, संरक्षण और प्रबंधन का अधिकार। साथ ही कानून की धारा 3(2) के तहत गाँव मे 13 प्रकार की विकास गतिविधियों के लिए 1 हेक्टेयर तक कि वन भूमि (जिसमें 75 से ज्यादा पेड़ न काटे जाने हों) को हस्तांतरण करने का अधिकार ग्राम सभा को है। जहाँ एक ओर प्रदेश में धारा 3(2) के तहत अभी तक 1900 मामलों को राज्य सरकार द्वारा मंजूरी मिल चुकी है वहीं 17,503 वन अधिकार समितियों के गठन के बावजूद अभी तक हिमाचल में धारा 3(1) के तहत मात्र 129 वन अधिकार दावों पर पट्टे प्रदान किये गए हैं। अक्षय जसरोटिया संयोजक, हिमाचल वन अधिकार मंच ने टिप्पणी देते हुए कहा, ” 2018 में धर्मशाला में हुए शीतकालीन विधान सभा सत्र में सरकार ने वादा किया था कि वो इस क़ानून को लागू करने हेतु प्रभावी एवं तत्कालीन कदम उठाएगी। जनवरी 2019 में राज्य स्तर निगरानी समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इसी तरह के सकरात्मक आश्वासन दिए थे लेकिन जमीन में अभी भी वही स्थिति है ओर प्रशासन अभी भी इस क़ानून से अनजान”
इस क़ानून के बारे में कोई प्रशिक्षण और जागरूकता प्रदान करने के बजाय, फरवरी में कांगड़ा के जिला प्रशासन ने FRC से दावा प्राप्त करने के लिए पंचायत सचिवों को 90 दिन की समय सीमा दी थी। जानकारी के अभाव में, FRCs को गुमराह कर उनकी ओर से निल ’या शून्य ’दावे प्रमाण पत्र भिजवाये जा रहे हैं जैसा कि पहले मंडी और चंबा जिलों में भी किया जा चूका है। अधिनियम के तहत गठित जिला स्तरीय समिति (मंडी) के सदस्य और करसोग मंडी से जिला परिषद सदस्य श्याम सिंह चौहान ने कहा, “2002 में कब्जों के नियमितीकरण के लिए राज्य सरकार द्वारा बनाई गयी नीति के तहत लाखों लोगों ने आवेदन किया था।” इसके अलावा, राजस्व और वन रिकॉर्ड में भी वन भूमि पर कृषि, बस्ती और पशु पालन के लिए निर्भर कई कब्जे दर्ज हैं, लेकिन इन परिवारों के पास इस पुश्तैनी जमीन पर अभी तक कोई कानूनी पट्टा नहीं है । वे सभी इस अधिनियम के तहत अपने व्यक्तिगत अधिकारों के लिए दावा करने के लिए पात्र हैं, लेकिन उन्हें उनके संवैधानिक अधिकार से वंचित किया जा रहा है ”।
चंबा के घुमंतू पशुपालक गुर्जर समुदाय के प्रतिनिधि लाल हुसैन ने जोर देते हुए कहा, “विभिन्न पशुपालक समुदायों के 2 लाख लोग जो चरागाहों(वन भूमि’ के रूप में वर्गीकृत) में पशुओं को चराने जाते हैं, व जिससे अपनी गुजर बसर करते हैं, वे FRA के माध्यम से सामुदायिक वन अधिकारों के लिए पात्र हैं। इस घोषणा मांग पत्र के माध्यम से हम यह स्पष्ट बताना चाहते हैं कि इस चुनाव में हम केवल उन राजनैतिक प्रत्याशियों का समर्थन करेंगे जो हमारे अधिकारों की बात करते हैं। ”
वन अधिकार क़ानून न केवल हिमाचल में ही बल्कि पूरे देश में चुनावी सर्वेक्षणों के अनुसार एक निर्धारक मुद्दे के रूप में उभरा है”, हिमधरा पर्यावरण समूह के प्रकाश भंडारी ने कहा। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और सीपीएम के राष्ट्रीय घोषणापत्रों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि वह वन पे निर्भर परिवारों की अन्यायपूर्ण बेदखली नहीं होने देंगे। और अधिनियम को निष्पक्षता के साथ लागू करेंगे, दूसरी ओर भाजपा इस मुद्दे पर अभी तक चुप्पी साधे हुए है। प्रकाश भंडारी ने आगे कहा, “हिमाचल में हालांकि लोग राज्य से खड़े उम्मीदवारों की FRA को दी गई प्राथमिकता को देखते हुए अपने वोट निर्धारित करेंगे।” राज्य कि आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से को पहले ही राज्य सरकारों द्वारा भूमि के नियमितीकरण के वादों पर धोखा मिल चुका है। और लोग निरंतर बेदखली के डर में जीने को मजबूर हैं। 11 अप्रैल 2019 को मंडी में 600 से अधिक की एक जन सभा ने एक साथ खड़े होकर “हिमाचल की जनता करे पुकार, हमें चाहिए वन अधिकार ” का नारा देते हुये अपनी मांग स्पष्ट की थी।
राज्य के जनजाति जिले किन्नौर से जिला वन अधिकारी समिति के संयोजक जिया लाल नेगी ने कहा, “किन्नौर में अभी तक सबसे ज्यादा दावे किए गए हैं, लेकिन हमारे उचित दावों को ओछे व तर्कहीन कारण देते हुए लंबित या लौटाया जा रहा है। यहाँ तक कि हमारे अधिकारों को बचाने के बजाय प्रसाशन व सरकार हमारे जनजाति ओर वन निवासी होने कि पहचान पर ही सवाल उठा रही है।” FRA कार्यान्वयन को लेकर लंबे समय से संघर्षशील लाहौल की सामाजिक संस्था सेव लाहौल स्पीति ने सरकारी व प्रशासनिक बाधाओं एवं उदासीनता से प्रभावित होकर, 23 मार्च को कुल्लू में प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपने क्षेत्र से चुनाव बहिष्कार की एक जन अपील की थी। राज्य के कई जनजातिय गांवों में इसी तरह चुनाव बहिष्कार या NOTA विकल्पों कि सार्वजनिक अपील व चर्चाएं की जा रही हैं। किन्नौर के लिप्पा गांव के निवासियों का ही उदाहरण लें जिन्होंने पिछले हफ्ते जिला प्रशासन के साथ अपनी बैठक में सवाल उठाया, “अपने व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकारों के लिए लंबे समय तक संघर्ष के बावजूद, हमने सरकार के हाथों निरंतर अन्याय का सामना किया है। अब शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से अपना असंतोष एवं अपने ऊपर हुए अन्याय को दिखाने के लिए चुनावों का बहिष्कार करने के अलावा हमारे पास और क्या ही रास्ता बचा है?”
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