हिमालयी क्षेत्रों में जल विद्युत विकास को स्वच्छ और अक्षय ऊर्जा के नाम पर बढ़ावा देने की होड़ पिछले दो दशकों से चल रही है। हिमाचल में बड़े पैमाने पर इन पनबिजली परियोजनाओं और संबंधित टावर लाईनों का निर्माण हुआ है और इसके लिए हज़ारों हेक्टेयर वन भूमि का हस्तांतरण भी किया गया है। वन हस्तांतरण से हो रहे वनों के दोहन की क्षति-पूर्ति के लिए वन विभाग द्वारा क्षतिपूरक वनीकरण या कॉम्पेंसेट्री अफ्फोरेस्टेशन नीति के अंतर्गत निर्माणकर्ताओं से धनराशि जमा कर उससे दुगने वन क्षेत्र में वृक्षारोपण किया जाता है। लेकिन क्या यह करने से बिजली परियोजनाओं से हो रही क्षति की भरपाई हो जाती है? हिमधरा पर्यावरण समूह के शोधकर्ताओं द्वारा 2012 से 2016 के बीच किये गया एक ज़मीनी अध्ययन, जलविद्युत परियोजनाओं के लिए किन्नौर जिले में हुए वन हस्तांतरण के विस्तार, स्वरूप और प्रभाव पर रौशनी डालता है। साथ ही जलविद्युत परियोजनाओं से होने वाले वनों के नुकसान की भरपाई के लिए वन विभाग द्वारा क्षतिपूरक वनीकरण कार्यक्रम के अंतर्गत किए गए वृक्षारोपण की ‘सफलता’ और प्रभावशीलता पर आंकड़े प्रस्तुत करता है।
यह अध्ययन क्यों?
विविध और नाज़ुक हिमालयी क्षेत्रों ने बीते कुछ वर्षों से भूमि के उपयोग में व्यापक और तेजी से बदलाव देखा है। 1990 के दशक से इस बदलाव का बड़ा भाग जलविद्युत परियोजनाओं का विकास रहा है। इस छोटी अवधि में जिन हिमालयी नदी घाटियों में इन परियोजनाओं का विस्तार हुआ है वहां के स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र और इन पर आधारित स्थानीय समुदायों के लिए बड़ी चुनौतियों का एक नया पिटारा खोल दिया है।
- स्थापित जलविद्युत क्षमता 10000 मेगावाट वाला हिमाचल प्रदेश देश की सबसे अधिक जलविद्युत परियोजनाओं के लिए जाना जाता है।
- राज्य की 5 मुख्य नदी घाटियों में से सबसे अधिक नियोजित क्षमता सतलुज नदी घाटी में है और यदि इस घाटी में सभी प्रस्तावित परियोजनाओं का निर्माण हो जाता है तो 22% नदी बांध के पीछे झील के रूप खड़ी रहेगी और 72% सुरंगों के भीतर बहेगी।
- ऊपरी सतलुज घाटी स्थित किन्नौर, एक दूरस्थ, दुर्गम पर्यावरण और भगौलिक दृष्टि से संवे दनशील जन जातीय जिला अपनी जलवायु परिवर्तन से उपजी आपदाओं जैसे भूस्खलन और बाढ़ के लिए जाना जाता है. साथ ही किन्नौर राज्य का जल विद्युत केंद्र भी है, यहाँ 53 जलविद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं, जिनमें से 17 बड़ी परियोजनाएं हैं (25 से ऊपर मेगावाट)।
- कुल 3041 मेगावाट की 15 अलग-अलग क्षमता की परियोजना किन्नौर में चालू हैं जो राज्य के सभी जिलों से ज्यादा है
- न केवल किन्नौर बल्कि पूरे हिमाचल राज्य में विकास गतिविधियों के लिए हुए वन भूमि हस्तांतरण का सबसे अधिक (90% से ज्यादा)हिस्सा है- जल विद्युत परियोजनायें व ट्रांसमिशन लाइन के लिए।
- राज्य में अन्य भूमि न होने के कारण वन संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों के हिसाब से प्रति हेक्टेयर वन हस्तांतरण के एवज में दोगुने बंजर वन भूमि क्षेत्र को ‘क्षतिपूरक वनीकरण’ या पौधारोपण के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
किन्नौर में जल विद्युत परियोजनाओं व इससे जुड़ी सभी गतिविधियों (साथ ही क्षतिपूरक वनीकरण) के लिए वन भूमि उपयोग के क्षेत्रफल और विस्तार को देखते हुए इन गतिविधियों का ज़मीन पर क्या प्रभाव है यह देखना आवश्यक है।
I. वन हस्तांतरण का प्रभाव
1. भूमि के उपयोग में परिवर्तन
- किन्नौर में, विकास परियोजनाओं के लिए 2014 तक, कुल 984 हेक्टेयर वन भूमि का हस्तांतरण किया गया जिसमें से 867 हेक्टेयर भूमि का हस्तांतरण 10 बड़ी परियोजनाओं, 12 छोटी जल विद्युत परियोजनाओं व 11 ट्रांसमिशन लाइनों के निर्माण के लिए हुआ, जो कि कुल वन हस्तांतरण का 90% भाग है। (जन सूचना अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी)
- आधिकारिक तौर पर अनुमति वाले वन हस्तांतरण से होने वाले नुकसान के अलावा, वनों को भू स्खलन और परियोजना निर्माताओं द्वारा किये अवैध अतिक्रमण से भी क्षति पहुंची है।
- ज़िले की 82% क्षेत्रफल पथरीली या उच्च हिमालय चारागाह के अंर्ग त है तो कम ऊंचाई वाले क्षेत्र, जहां अधिक व घने जंगल पाए जाते हैं, और जो स्थानीय समुदाय की दैनिक जरूरतों व छोटे-बड़ी विकास की विभिन्न गतिविधियों के लिए भी उपयुक्त क्षेत्र हैं , वहीं जलविद्युत परियोजनाओं की निर्माण गतिविधियों से इस सिमित भूमि पर अधिक भार/ दबाव भी पडा है।
- बिजली परियोजनाओं के लिए सबसे अधिक वन हस्तांतरण उन वर्षों में हुआ जब स्वच्छ ऊर्जा के लिए अन्तराष्ट्रीय लोन व सब्सिडी भी चरम पर थे। किन्नौर की 6 बड़ी परियोजनाओं ने CDM (क्लीन डेवेलपमेंट मेकेनिस्म) सब्सिडी के लिए आवेदन किया जिसमें 4 परियोजनाओं (सोरंग, करछम वांगतू, एकीकृत काशांग व शोंगटोंग करछम ) को इसका लाभ मिला।
- करछम वांगतू परियोजना के मामले में मुख्य परियोजना गतिविधियों के लिए 180 हेक्टेयर वन भूमि का हस्तांतरण किया गया, वहीँ उसके साथ 323 हेक्टेयर वन भूमि को ट्रांसमिशन लाइन (लगभग 500 टावरों के साथ) के निर्माण के लिए हस्तांतरित किया गया। संचयी रूप से कुल 503 हेक्टेयर वन भूमि का हस्तांतरण हुआ, मुख्य परियोजना गतिविधियों के लिए 1287 पेड़ों की कटाई हुई तो ट्रांसमिशन लाइन के निर्माण के लिए 3924 पेड़ों की कटाई हुई। इससे यह बात सामने आती है कि टावर लाईनों के निर्माण से भी वनों का काफी दोहन हुआ है।
2. जैव विविधता को नुकसान
• किन्नौर में कुल वन भूमि हस्तांतरण में 21 प्रजातियों के 11598 पेड़ काटे गये, जिसमें मुख्य: देवदार (3612) और दुर्लभ व लुप्तप्राय चिलगोजा (2743) के पेड़ों को काटा गया। गौरतलब है कि पूरे भारत में केवल किन्नौर में इतने बड़े क्षेत्र में चिलगोजा के जंगल पाए जाते हैं और व्यवसयिक तौर पर चिलगोजा के बीज निकाले जाते हैं जो स्थानीय लोगों की आजीविका का हिस्सा है।
• गौर करने वाली बात है इन 21 प्रजातियों में इमारती लकड़ी की प्रजातियों के अलावा अन्य विभिन्न प्रजाति के पेड़ शामिल हैं जिन्हें स्थानीय समुदाय उपयोग करते हैं। अन्य प्रजातियों के लिए वन विभाग के सर्वे में ‘कोकाट’ (झाडी) शब्द का इस्तेमाल किया जाता है और इनकी गिनती नष्ट होने वाली प्रजातियों से छूट जाती है। उदाहरण के तौर पर शोरगु जैसी प्रजाति जो स्थानीय समुदायों द्वारा मूल्यवान मानी जाती है– ऐसी सैंकड़ों प्रजातियाँ वन हस्तांतरण के प्रस्तावों और DFO सर्वे रिपोर्ट में नदारद थी।
• यहाँ 10 परियोजनाएं हैं जिनके लिए लगभग 415 हेक्टेयर चिलगोजा के जंगलों का वन क्षेत्र हस्तांतरित किया गया है। चिलगोजा के वन प्राकृतिक और कृत्रिम दोनों माध्यमों से दोबारा उगने की संभावना के अभाव में, यह प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर है।
3. संवेदनशील स्थानों का विखंडन
- बांध से पावर हाउस तक बिजली परियोजना के लिए निर्माण का कार्य कई छोटे-छोटे हिस्सों में मुख्य सुरंग की लंबाई में फैला पाया गया – अंग्रेजी में इस प्रक्रिया को फ्रै गमेंटेशन कहते हैं क्योंकि इससे भूस्थलीय और प्राकृतिक संरचना का विखंडन होता है, और इससे जंगली जानवरों के रास्ते और आवास अस्त व्यस्त भी होते है, और वनों के नए हिस्से खुल जाते हैं – जहां पहले इस्तेमाल नहीं था उस पर ज्यादा दवाब पड़ता है। पूरी नदी में एक के बाद दूसरी परियोजना बनने से नदी की पूरी लम्बाई में ही नुकसान होगा।
- कुल 13 जल विद्युत परियोजनाएं रूपी-भाभा वन्यजीव सेंक्च्यूरी के 10 किलोमीटर के बफ़्फ़र जोन में पड़ते हैं। अन्य 5 परियोजनाएं लिप्पा-आसरंग वन्यजीव सेंक्च्यूरी के क्षेत्र में पड़ते हैं, जबकि बास्पा-2 परियोजना रकछम- छितकुल वन्यजीव सेंक्च्यूरी से महज 6.5 किलोमीटर की दूरी पर है। कहने को यह वन्यजीव संरक्षण क्षेत्र हैं जिनको अतिसंवे दनशील माना जाता है परन्तु इन निर्माण कार्यों को मंज़ ूरी देते समय यह ध्यान में नहीं रखा गया कि इन पर क्या प्रभाव पडेगा और इन क्षेत्रों को संरक्षित घोषित करने का उद्देश्य क्या था?
- जंगल के विखंडन का असर पशु-चराई, घुमंतू पशुपालन, जैसी आजीविकाओं पर भी पड़ता है।
II. क्षतिपूरक वनीकरण (CA) के अंतर्गत वृक्षारोपण का आंकलन
1. क्रियान्वयन पूर्ण नहीं
- जल विद्युत और ट्रांसमिशन लाइनों के हस्तांतरण के एवज में किन्नौर वन प्रभाग ने 1980-2013 तक क्षतिपूरक वनीकरण के लिए 11.15 करोड़ रुपए प्राप्त किए।
- 31 मार्च, 2014 तक, गैर-वानिकी गतिविधियों जिसमें सड़क, जल विद्युत, ट्रांसमिशन लाईन आदि शामिल हैं के 984 हेक्टेयर वन हस्तांतरण के एवज में क्षतिपूरक वनीकरण लिए कुल 1930 हेक्टेयर वन भूमि को सीमांकि त किया गया।
- इसके अलावा, 2002 और 2014 के बीच, किन्नौर की परियोजनाओं के कैचमेंट एरिया ट्रीटमेंट (कैट- CAT) फंड में 162.82 करोड़ रुपये जमा हुये जिसमें से 31 मार्च, 2014 तक केवल 36% खर्च किए गए।
चित्र: किन्नौर जिले में अध्ययन के लिए वृक्षारोपण स्थलों का चयन
2. कहां गये पौधे? – पौधरोपण का खराब सर्वाइवल (रोपित पौधों का जीवित रहने की दर)
- क्षतिपूरक वनीकरण (सीए) और कैचमेंट एरिया ट्रीटमेंट (कैट) के तहत रिपोर्ट किए गए कुल पौधों की औसत संख्या में से केव ल 10% वृक्षारोपण की जगह में पाए गए, जो कि काफी कम है। 22 में से 3 सैंपल प्लॉट में एक भी पौधा नहीं मिला।
- अति शुष्क परिस्थितियों और सिंचाई सुविधाओं के अभाव के कारण मध्य व ऊपरी किन्नौर में स्थित वृक्षारोपण स्थलों में बहुत ही खराब जीवन दर देखने को मिला – 4 प्लॉट में लगभग 3.6%। वन विभाग ने डेजर्ट डेव लपमेंट योजना की असफलता के लिए भी यही कारण माना है। मनोती में, एक वृक्षारोपण प्लॉट, में वृक्षारोपण के नाम पर केव ल कुछ हिस्सों में एक पुराना तार-बाड़ देखने को मिला।
टेबल: किन्नौर जिले में जीवित रहने के दर (%) के अनुसार वृक्षारोपण प्लॉट का वर्गीकरण
3. स्थानीय निर्भरता और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र के साथ टकराव
- C-233 और थाच नामक वृक्षारोपण प्लॉट जिन जगहों पर हैं उन्हें स्थानीय लोग घास/चारा इकट्ठा करने और पशुओं को चराने के लिए उपयोग करते थे। टारांडा बीट गार्ड ने बतया कि स्थानीय लोग चारागाहों को वृक्षारोपण में तब्दील होने देना नहीं चाहते और इसीलिए वन विभाग द्वारा लगाए गए “पौधों को उखाड़” देते हैं।
- प्लॉट कुतांगेंन में पहले से ही पेड़ो की अपेक्षाकृत काफी आबादी पायी गयी। फिर भी वन विभाग ने यहाँ ऐलैंथस और रोबिनि या जैसी बाहरी (इस क्षेत्र में प्राकृतिक तौर पर नहीं पाए जाने वाली) प्रजातियों को लगाया। वन विभाग के वाउचरों से पता चला की प्रति हेक्टेयर में 1100 पौधों को लगाया गया, जो भौगोलिक व भौतिक परिस्थितियों को देखते हुये असंभव था।
4. वृक्षारोपण के लिए उपयुक्त जगहों का अभाव
- बास्पा प्लॉट के मामले में, रोबिनिया के पौधे सही से बढ़ रहे थे, लेकि न वृक्षारोपण वाउचर के अनुसार इन्हें कभी लगाया ही नहीं था।
- वन विभाग के ज़मीनी कर्मचारियों ने बताया की “मुश्किल से ही कोई जगह वृक्षारोपण के लिए उपयुक्त है”, लेकिन वन हस्तांतरण के लिए जरूरी शर्त को पूरा करने व लक्ष्य को हासिल करने के लिए “हमने उन्हें रिकॉर्ड में लिया और जितने क्षेत्र पर वृक्षारोपण संभव था उधर हमने किया”।
- विभाग ने अब किन्नौर में हुये वन हस्तांतरण के बदले हिमाचल के अन्य जिलों में वृक्षारोपण करने का फैसला किया है।
5. देसी प्रजाति को बर्बाद कर बाहरी प्रजातियों को लगाना: वनों के स्वरूप में बदलाव
• सबसे मुख्य निष्कर्षों में से एक, वन हस्तांतरण के लिए जिन प्रजातियों को काटा गया उनके बदले जिन प्रजातियों को लगाया गया इसमें विसंगति थी। जो पेड़ काटे या हटाये गए वे स्थानीय व देसी प्रजातियाँ थी जबकि वृक्षारोपण में औसत से अधिक ऐलैंथस और रोबिनिया जैसी विदेशी प्रजातियों को लगाया गया। इसके अलावा हमने पाया कि, सभी वृक्षारोपण प्लाटों में ऐलैंथस और रोबिनिया जैसी विदेशी प्रजातियों का जीवित रहने की दर स्थानीय प्रजातियों से काफी ज्यादा है। वनों के बदलता स्वरूप स्थानीय प्रजातियों के अस्तित्व के लिए खतरा है, जो अब पौधारोपण में बाहरी प्रजातियों को स्थानीय प्रजातियों पर तरजीह देने से और प्रबल हो रही है।
चित्र: किन्नौर में जलविद्युत और टावरलाइनों के लिए काटे गए वृक्षों की तुलना में लगाए गए पौधे की प्रजातियों
चर्चा: अध्ययन से उभरे ढाँचागत सवाल और मुद्दे
• अंग्रेजों के राज के बाद से भारत में ‘वनों के प्रबंधन’ में पश्चिमी मॉडल पर आधारित “वैज्ञानिक” वानिकी तथा संरक्षण प्रणाली का दबदबा रहा है जिसके अंतर्गत वन संरक्षण अधिनियम जैसे क़ानूनों का जन्म हुआ। हांलाकि इस कानून का मकसद वनों का संरक्षण था परन्तु इस कानून के वन हस्तांतरण के प्रावधानों के अंतर्गत बड़ी विकास परियोजनाओं के लिए वनों का दोहन ही हुआ है है और यही बात इस अध्ययन के दौरान किन्नौर में भी नज़र आई। बल्कि अध्ययन से यह बात समझ में आती है कि वन हस्तांतरण के एवज में धन राशि लेने की प्रणाली ने इस पूरी कार्यवाही को केव ल एक प्रकार के व्यावसायिक लेन-देन में बदल दिया है।
• परियोजना निर्माताओं द्वारा जल विद्युत परियोजनाओं और इसके निर्माण कार्यों, जैसे स्टोन क्रशर और टावर लाईनों के लिए छोटे-छोटे टुकड़ों में ली गयी अलग-अलग वन मंजूरी के चलते इन सभी परियोजनाओं का कुल मिला के क्षेत्र की पारिस्थितिकी और जंगलों पर कितना गहरा प्रभाव पड़ेगा यह आसानी से समझ पाना संभव नहीं।
• जबकि टावर लाईनों के बिना तो बिजली परियोजना का निर्माण संभव नहीं पर इसके लिए वन मंज़ ूरी अलग से ली जाती है क्यों कि इस परियोजनाओं को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा लीनियर प्रोजेक्ट का दर्जा दे कर इनके लिए कई नियमों में ढील दी गयी है बल्कि इन परियोजनाओं को पर्याव रण प्रभाव आंकलन की प्रक्रिया से पूर्ण रूप से बाहर रखा गया है।
• अचम्भे की बात है कि वन मंजूरी देने वाली वन सलाहकार समिति ने इन सब बातों को अनदेखा किया और आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर एक ही परियोजना के अलग अलग प्रस्तावों को टुकड़ों में मंज़ ूरी देती रही।
• साथ ही अध्ययन में यह भी सामने आया कि वन हस्तांतरण के आवेदन के साथ जो पेड़ो की गिनती की गयी उसमें कभी पूरे जंगल के विविध स्वरूप का आंकलन नहीं किया गया। कुल मिला के जो वन हस्तांतरण में 11,589 पेड़ कटे उसमें केव ल 21 प्रजातियाँ थी – और इसमें घास और झाड़ी शामिल नहीं हैं।
• जहां तक क्षतिपूरक वनीकरण का सवाल है – तो कानूनी प्रावधानों के हिसाब से केव ल ज़मीन के बदले ज़मीन और पेड़ के बदले पेड़ का प्रावधान है जिसको वन मंजूरी देते वक्त जांचा जाता है। इसके अलावा कोई और प्रश्न या वानिकी योजना पर कानून बल नहीं देता. परन्तु ज़मीनी अध्ययन में हमने पाया कि हर पौधारोपण प्लाट की पारिस्थितिकी और विविधता अलग थी और विपरीत परिस्थितियों में पौधारोपण करने के कारण इनकी सफलता 10% ही रही।
• परन्तु जो उच्च-स्तरीय समिति क्षतिपूरक वनीकरण के बलबूते पर वन मंजूरी दे देती है वो बाद में यह जांच या निगरानी नहीं करती कि पौधारोपण कार्यक्रम का नतीजा क्या रहा और यदि असफल हुआ तो उसके कारण क्या हैं।
• जल विद्युत परियोजनाओं की अंधी दौड़ जो किन्नौर और पूरे हिमालयी क्षेत्र में नज़र आती है वो एक व्यापक वैश्विक नीति और राष्ट्रीय मिशन का हिस्सा है। पिछले दो दशकों में अंतराष्ट्रीय बैंकों से ऋण और स्वच्छ ऊर्जा के नाम पर सब्सिडी लेने की होड़ के चलते कई निजी व सरकारी कम्पनियाँ इस दौड़ का भाग बनीं और इसी के चलते ही वन और पर्यावरण मंत्रालय तथा अन्य नियंत्रक विभाग भी मंजूरियों को फ़ास्टट्रेक करने के दबाव के साथ कार्यरत रहे।
• इसी के चलते प्रभावित समुदायों और ग्राम सभाओं से NOC या मंजूरी लेने के कानूनी प्रावधानों का भी उल्लंघन किया जाता है। किन्नौर जन जातीय क्षेत्र में यह स्पष्ट रूप से नज़र आता है-जहां समुदायों ने वन अधिकार कानून 2006 के प्रावधानों के खिलाफ वन मंजूरी देने पर कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया और उनके पक्ष में फैसला भी आया पर इसके बावजूद परियोजना निर्माणकर्ताओं द्वारा इनका खुले रूप से उल्लंघन जारी है। जबकि न केव ल वन हस्तांतरण बल्कि क्षतिपूरक वनीकरण के लिए जो वन भूमि का इस्तेमाल वन विभाग द्वारा किया जाता है उससे भी स्थानीय समुदायों के उपयोगों पर असर पड़ता है और फिर भी बिना स्थानीय ग्राम सभाओं कि मंजूरी के पौधारोपण किया जाता है।
• आज भी इन सभी मुद्दों के सामने आने के बावजूद जल विद्युत परियोजनाओं को लगातार मंज़ ूरी दी जा रही है और हाल ही में सतलुज घाटी के लिए 28 बड़ी परियोजनाओं की योजना पर पर्याव रण मंत्रा लय ने हरी झंडी दिखाने का फैसला किया है जो कि इस क्षेत्र, यहाँ के पर्याव रण और समुदायों के जन जीवन तथा अजीविकाओं के लिए खतरे की घंटी है।
• जल विद्युत परियोजनाएं अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने की नीति का हिस्सा हैं क्यों कि कोयले और तेल से जनित ऊर्जा ने विश्व भर में काफी तबाही और पर्याव रणीय नुक्सान किया है – दूसरी तरफ जल विद्युत जैसी परियोजनाओं से होने वाले प्राकृतिक विनाश की भरपाई करने के लिए क्षति-पूर्ति वनीकरण जैसी योजना बनाई गयी। परन्तु यह अध्ययन साफ़ दर्शाता है कि जल विद्युत परियोजनाओं और क्षतिपूर्ति वनीकरण दोनों ने ही किन्नौर जैसे संवे दनशील क्षेत्र में वन संसाधनों और उनपे टिकी आजीविकाओं को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है।
• इस वक्त सरकारों को जरूरत है कि हिमालयी क्षेत्रों में जल विद्युत् विकास पर रोक लगाते हुए एक बहुआयामी अध्ययन करवाएं. इसमें जनता की भागीदारी भी हो साथ ही आगे की विकास योजना और वन तथा पर्याव रण प्रबंधन में स्थानीय समुदायों की भागीदारी तथा उनके आजीविकाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए।
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मीडिया प्रसार
Times Of India