Let us acknowledge that these climatic changes, be it erratic rainfall or deglaciation due to increased warming are not ‘natural phenomena’. These are caused and exacerbated by several anthropogenic factors, the biggest being the rapid exploitation of land, water and forests and the emission of greenhouse gases in the atmosphere given the highly polluting nature of ‘development’ – worldwide. This crisis is adversely affecting the poorest of communities across the world and in our country, living in frontier regions like the mountains and coasts. Scarcities of water, changing agricultural patterns and deforestation have grossly impacted farmers, forest dependent indigenous people and the urban poor.
Let the common people know that in the year 2008 the government of India set up the National Climate Change Action Plan. In the last couple of years close to 140 Billion dollars have been spent on various missions under this plan. Thousands of crores have been spent on setting up state climate cells for climate change research in the Himalaya. Apart from this several independent studies have been published over the last two decades on the vulnerabilities of the Himalayan region. It is a matter of shame and sheer negligence that the findings of these studies have not converted to policy.
Which is why the dam building agenda continues unabated and unabashed in the Himalayas ranging from the East to the West attempting to realise a potential of 118000 MW of electricity involving hundreds of large, medium and small hydropower projects. In Himachal, where projects worth 10000 MW have already been built have changed land use – gobbled forests & farms, caused landslides.soil erosion and impacted the riverine ecosystems at an enormous scale. According to the State Disaster Management Authority, most of Himachal’s hydropower projects in operation or under construction fall in areas highly vulnerable to various hazards like landslides and floods. The Avay Shukla Committee report presented to the Shimla High Court in 2011 had reccomended a moratorium on new hydropower projects in the state for this reason. But the state government dissed the report completely.
Most of the planned projects that are yet to come up in Himachal are in the climate vulnerable and ecologically fragile greater and trans Himalayan regions of Kinnaur and Spiti, located in the Upper Satluj valley and Lahaul in the Chandrabhaga also known as Chenab, where tribal communities are resisting them tooth and nail. These are also geologically unstable terrains prone to earthquakes and avalanches. A study by researchers from the University of Potsdam, Germany, analysing 273 hydropower projects in the Himalayas in India, Nepal and Bhutan found that about 25% of them are likely to face severe damage from quake-triggered landslides.
The 2013 Uttarakhand disaster was an expensive and tragic lesson. The Ravi Chopra Committee and scientific assessments made clear the role of hydropower and mindless construction in exacerbating the impact of the Kedarnath flash flood. But we learnt nothing from it. The reason we refer to this as an ‘agenda’ should be clear by now. It is an agenda because no amount of evidence presented to the Ministry of Environment and Forests, to state departments, to CWC, to courts has led to a reconsideration or review of the hydropower policy of the Government of India or the state governments of Uttarakhand, Himachal, Arunachal, Sikkim etc. Lack of adequate and thorough scientific planning and shoddy impact assessment studies are approved by Expert Appraisal Committees with members who are clearly in support of projects. The Asian Development Bank which has funded the expansion of NTPC projects in the Dhauliganga river approved an EIA report of Tapovan Vishni gad which doesnt have a single mention of the threat of flood or glacial lakes, avalanches. International Financing agencies are thus also complicit in this negligence.
Once clearances are granted non-compliance of environmental norms and social accountability laws is rampant. No safety monitoring is undertaken and lives of workers and people of affected villages are constantly at stake. Have we ever heard of an Environment Clearance of a dam being cancelled because of non-compliance? Diminishing space for democratic public participation in decision making processes have further worsened the situation in the past few years. With the EIA 2020 the MoEF&CC and government is completely finishing this space.What is worse is that the central government, despite the obvious hazards associated with large hydropower projects, has in 2019 classified projects above 25 MW as ‘renewable’ which will be able to avail subsidies and the power produced by these will be subject to obligatory purchase norms.
We express our collective rage at the inaction by the government at multiple levels and its repeated thrust on large dams in the Himalayas. No amount of monetary compensation can placate the anguish of those who have suffered irreparable losses. No amount of trying to hide behind words like ‘natural disaster’ and ‘act of god’ can deceive the people. The lack of accountability and intent of all the institutions, agencies and political representatives involved stands amply exposed.
Signatories :
Bharat Gyan Vigyan Samiti; Himalayan Students Ensemble; Himdhara Environment Research and Action Collective; Himalaya Bachao Samiti, Chamba; Himalaya Niti Abhiyan; Him Lok Jagriti Manch, Kinnaur; Nagrik Adhikar Manch, Kangra; People’s campaign for socio-economic equity in the Himalaya; Save Lahaul Spiti, Lahaul; Spiti Civil Society, Spiti; Sutra, Himachal Pradesh; Towerline Shoshit Jagrukta Manch; Zilla Van Adhikar Samiti; Sirmaur Van Adhikar Manch
News Coverage:
Outlook India
UNI India
Photo credit: NDTV
उत्तराखंड त्रासदी: कुदरती आपदा या राजनैतिक – शासकीय लापरवाही?!
चमोली, उत्तराखंड में घटित दुखद घटना में लोगों द्वारा जीवन गवाने पर हम अपना दुख और पीड़ा व्यक्त करते हैं। सुनने में आया है कि सैकड़ों लोग लापता हैं और कई लोग मारे गए हैं। हम इस बात से भी अवगत हैं कि बड़े पैमाने पर आई इस बाढ़ के पीछे के कारण के बारे में सरकार या किसी अन्य राज्य एजेंसी द्वारा कोई स्पष्ट बयान नहीं आया है। हालांकि, घटना के स्थान और संदर्भ को देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह हिमस्खलन या लैंड स्लाइड और/या किसी प्रकार के ग्लेशियर की झील के फटने की वजह से हो सकता है। प्राचीन काल से ही हिमालय कठिन और संवेदनशील कठोर भूगोल के लिए जाने जाते है। लेकिन हाल के दशकों में जलवायु संकट ने इस ख्सेत्रों को पारिस्थितिक और भौगोलिक रूप से और नाजुक और संवेदनशील किया है.
पहले तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि जलवायु परिवर्तन, चाहे अनियमित बारिश हो या बढती गर्मी के कारण बड़े बड़े ग्लेशियर का तेज़ी से पिघलना, ये कोई ‘प्राकृतिक घटना’ नहीं. ये संकट मानवनिर्मित है, समय के साथ बढ़ता जा रहा है और इसका सबसे बड़ा कारण भूमि, जल और जंगलों का तेजी से दोहन और वायुमंडल में कार्बन का उत्सर्जन, जिसे दुनिया भर में ‘विकास’ के नाम से जाना जाता है।। यह संकट दुनिया भर में और हमारे देश में सबसे गरीब समुदायों को प्रभावित कर रहा है, जो पहाड़ों और तटों जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों में रह रहे हैं। पानी की कमी, बदलते कृषि स्वरुप और बाढ़ जैसी आपदाओं का सीधा बोझ किसानों, वन आश्रितों और शहरी गरीबों पर आता है।
आम लोगों को यह जानना ज़रूरी है कि वर्ष 2008 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्य योजना बनाई थी। इस योजना के तहत विभिन्न मिशनों पर 140 बिलियन डॉलर के करीब पिछले कुछ वर्षों में खर्च किए गए हैं। जलवायु परिवर्तन अनुसंधान से सम्बंधित हिमालयी राज्य की जलवायु कोशिकाओं को स्थापित करने के लिए हजारों करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। इसके अलावा हिमालय क्षेत्र की कमजोरियों, झील निर्माण और ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड्स के बढ़ते जोखिमों पर पिछले दो दशकों में कई स्वतंत्र अध्ययन प्रकाशित हुए हैं। यह शर्म और सरासर लापरवाही का विषय है कि इन अध्ययनों के निष्कर्षों को आज तक नीति में परिवर्तित नहीं किया गया है।
यही वजह है कि बांध निर्माण का एजेंडा पूर्व से पश्चिम हिमालय में बिना किसी रूकावट के जारी है, जिसमें सै118000 मेगावाट क्षमता की बड़ी, मध्यम और छोटी जल विद्युत परियोजनाओं स्थापित हो रही है। हिमाचल में, जहाँ 10000 मेगावाट की परियोजनाएँ पहले से ही निर्मित हैं, ने भू उपयोग को बदल दिया है – जंगलों और खेतों को निगल लिया है, भूस्खलन की स्थिति पैदा की है, मिटटी का कटाव, और नदी के पारिस्थितिकी तंत्र को भारी पैमाने पर प्रभावित किया। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, हिमाचल के अधिकांश जलविद्युत परियोजनाएं, सक्रीय या जहाँ निर्माण कार्य चल रहा है, ऐसी जगहों पर बनाये गये जहाँ भूस्खलन और बाढ़ जैसे विभिन्न खतरों का डर बना रहता हैं। शिमला उच्च न्यायालय में प्रस्तुत अवय शुक्ला कमिटी की रिपोर्ट ने इस कारण से राज्य में नई जलविद्युत परियोजनाओं पर रोक लगाने का सुझाव 2011 में दिया था। लेकिन राज्य सरकार ने रिपोर्ट को पूरी तरह से नकार दिया।
हिमाचल में अभी तक आने वाली अधिकांश योजनाएं जलवायु की दृष्टि से कमजोर और पारिस्थितिक रूप से नाजुक क्षेत्रों में हैं | उच्च सतलुज घाटी में स्थित किन्नौर और स्पीति के हिमालयी क्षेत्र और चंद्रभागा जो चेनाब के नाम से भी जाना जाता है में स्थित लाहौल, यहाँ के जन जातीय समुदाय इन परियोजनाओं का जम कर विरोध कर रहे हैं । ये भूगर्भीय रूप से अस्थिर इलाक़े हैं जो भूकंप और हिमस्खलन की चपेट में आते हैं। भारत, नेपाल और भूटान में हिमालय की 273 जलविद्युत परियोजनाओं का विश्लेषण करने वाले जर्मनी के पोट्सडैम विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि उनमें से लगभग 25% परियोजनाओं में भूकंप से जन्मे भूस्खलन से गंभीर क्षति होने की संभावना है।
2013 की उत्तराखंड त्रासदी के बाद रवि चोपड़ा कमेटी और वैज्ञानिक आकलन ने केदारनाथ फ्लैश फ्लड के प्रभाव को बढ़ावा देने में जलविद्युत और अंधाधुन्द निर्माण की भूमिका को स्पष्ट किया। लेकिन हमने इससे कुछ नहीं सीखा। इसे ‘एजेंडा’ के रूप में संदर्भित करने का कारण अब तक स्पष्ट होना चाहिए। यह एक एजेंडा है क्योंकि कितने भी तरह के सबूत जो पर्यावरण और वन मंत्रालय, राज्य विभागों को, सीडब्ल्यूसी को, अदालतों को प्रस्तुत किए गये, उसके बावजूद भी, भारत सरकार या उत्तराखंड, हिमाचल, अरुणाचल, सिक्किम राज्यों कि सरकारों द्वारा जलविद्युत और मेगा-परियोजनाओं की नीतियों पर पुनर्विचार नही किया गया। पूर्ण रूप से हुआ वैज्ञानिक नियोजन का अभाव और घटिया प्रभाव मूल्यांकन अध्ययन, विशेषज्ञ मूल्यांकन समितियों द्वारा स्वीकृत किये गये, उन सदस्यों द्वारा जो स्पष्ट रूप से परियोजनाओं के समर्थन में हैं। एशियन डेवलपमेंट बैंक, जिसके द्वारा धौलीगंगा नदी में एनटीपीसी परियोजनाओं के विस्तार के लिए फण्ड दिया गया, ने तपोवन विस्नी गड की एक EIA रिपोर्ट को मंजूरी दी है जिसमें बाढ़ या ग्लेशिअल झीलों, हिमस्खलन के खतरे का एक भी उल्लेख नहीं है। इस प्रकार, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियां भी इस तरह की लापरवाही का हिस्सा हैं।
मंजूरी मिलने के बाद पर्यावरणीय नियमों का पालन न होना और सामाजिक जवाबदेही से जुड़े कानूनों का लागू न होना आम है। किसी भी तरह की सुरक्षा से जुडी निगरानी नहीं की जाती है, जिससे लगातार, प्रभावित गांवों के श्रमिकों और लोगों के जीवन डाव पर रहते हैं। निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में लोकतांत्रिक रूप से लोगों कि भागीदारी के लिए कम होती जगह ने पिछले कुछ वर्षों में स्थिति को और खराब कर दिया है। EIA 2020 के साथ MoEF&CC और सरकार लोगों की भागीदारी को और खत्म करने की ओर बढ़ रही है। चिंता की बात यह है कि केंद्र सरकार ने बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं से जुड़े स्पष्ट खतरों के बावजूद, 2019 में, 25 मेगावाट से ऊपर की वर्गीकृत परियोजनाओं को ‘नवीकरणीय’ कहा है जिन्हें सब्सिडी का लाभ मिलेगा और इनसे उत्पादित बिजली अनिवार्य खरीद मानदंडों के अधीन होगी।
सरकार की कई स्तरों पर निष्क्रियता व बड़े बांधो पर नियमित जोर पर हम अपना सामूहिक क्रोध व्यक्त करते हैं| मुआवजा राशि जितनी भी दी जाए, ये प्रभावित लोगों द्वारा चुकाई गयी कीमत की भरपाई नहीं कर सकती | ‘प्राकृतिक आपदा’ और ‘भगवान की करनी’ जैसे शब्दों के पीछे छिपने से लोगों को धोखा नहीं दिया जा सकता है। सरकार की गैर-जवाबदेईऔर सभी संस्थानों, एजेंसियों और राजनीतिक प्रतिनिधियों की मंशा पूर्ण खुलासा सभी के समक्ष हो चुका है।
हर्ताक्षर्कर्ता:
भारत ज्ञान विज्ञान समिति हिमाचल प्रदेश; जिला वन अधिकार समिति, किन्नौर, हिमालय निति अभियान; हिमालयन स्टूडेंट्स एन्सेम्बल, हिमालय बचाओ समिति, हिमलोक जाग्रति मंच, हिमधरा पर्यावरण समूह, नागरिक अधिकार मंच, काँगड़ा, हिमालय में सामाजिक आर्थिक समानता के लिए जन अभियान, सेव लाहौल स्पिति, स्पीती सिविल सोसायटी, सूत्र हिमाचल, सिरमौर वन अधिकार मंच, टावर लाइन शोषित जागरूकता मंच, हिमाचल प्रदेश