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Press note: 20 July, 2021 |Forest Rights Act awareness campaign amongst Lahaul valley Mahila Mandals
Himdhara Collective, a himachal based environment action group organized a series of meetings with close to 20 Mahila Mandals of the tribal Lahaul Valley to create awareness about the Forest Rights Act, 2006. Over a period of one week the three women member team held meetings with women in villages Kwaring, Stringri, Sissy, Teling, Koksar, Suling, Muling, Toche, Tandi, Pyukar, Kardang, Biling, Kelang, Chaukhang, Chimret, Mudgra, Ratoli, Salpat, Hinsa and Triloknath on the provisions of Forest Rights Act, especially those that concern women’s participation.
The Forest Rights Act, passed by the Parliament in 2006 is a legislation which recognises the individual and community rights of forest dependent communities to use as well as manage and conserve their forest lands. Not only is this law crucial for Scheduled tribe areas like Lahaul, but it also contains special provisions for ensuring the representation and participation of women. Women are one of the most important stakeholders in the process because of their connection with land. Besides agriculture, they are engaged in the arduous task of collecting firewood, leaf litter, grass and fodder from the forest. But whenever crucial decisions concerning forest rights are to be taken, women are invisibilised. This is a matter of grave concern also because
women and mahila mandals in Lahaul valley have been instrumental in the forest conservation and afforestation efforts of the Lahaul valley. They have also controlled their own use of forest resources, towards their commitment to conservation of their community resources. Community management of forests in an ecologically-sensitive area like Lahaul holds a special significance for the world in general and for tribal and traditional forest dwelling communities in particular. This initiative empowers local gram sabhas to take decisions for their own well being.
The Forest Rights Act considers women equal stakeholders and right-holders in the forest land. In the implementation of these laws, a special status has been given to women. In the Forest Rights Committee at least one-third of the members should be a woman. Sub-divisional Committees and District level committees should have at least one woman member. A Gram sabha meeting convened to decide on forest rights should also have a quorum of at least one-third women present during the meeting. Besides this, the title of Individual Forest Right is issued in favour of both the male and female heads of the family.
If 50% of the world population comprises of women and without their efforts there can be no progress, then we must ensure land and forest rights to women.
It has been 15 years since the coming into effect of the Forest Rights Act, 2006, still Himanchal Pradesh continues to lag considerably behind other states in the implementation of the Act. Only 129 Individual Forest Rights and 35 Community Forest Rights have been officially recognised in the state till now, of which 76 people have received the title for their houses in Lahaul spiti District. In December 2018, the Tribal Minister of Himanchal Pradesh Shri Ramlal Markandey had assured that Forest Rights Act will be implemented in Mission mode in the state. Despite this, Forest Committees created under the Act and government officials responsible for implementing the law are not well informed and trained on FRA. As a result, there are several misconceptions and myths causing delays in implementation of the Forest Rights Act.
प्रेस नोट: 20 जुलाई 2021 | लाहौल घाटी के महिला मंडलों के बीच वन अधिकार कानून, 2006 पर जागरूकता अभियान
हिमधरा पर्यावरण समूह की टीम ने पिछले हफ्ते (13 जुलाई से 20 जुलाई तक) लाहौल घाटी के लगभग 20 महिला मंडलों के साथ वन अधिकार कानून 2006 पर जागरूकता फैलाने के लिए बैठकों का आयोजन किया। हिमधरा समूह की तीन महिला सदस्यों मांशी आशर, हिमशी सिंह व कनिष्का यादव की टीम ने क्वारिंग, स्टिंगरी, सिस्सू, तेलिंग, कोकसर, शूलिंग, मूलिंग, तोचे, तांदी, प्यूकर, कारदंग, बिलिंग, केलांग, चौखंग, चिमरेट, मड़ग्रा, रतोली, सलपट, हिंसा और त्रिलोकनाथ गांव में वन अधिकार कानून के प्रावधानों पर जानकारी दी और महिलाओं को अपने अधिकारों के बारे में बताया।
वन अधिकार कानून संसद द्वारा 2006 में पारित एक ऐसा कानून है जो वन भूमि पर आजीविका के लिए निर्भर समुदायों को वन भूमि के निजी तथा सामूहिक उपयोग और वन प्रबंधन का अधिकार देता है। यह कानून न केवल लाहौल जैसे जनजातीय क्षेत्रों और यहाँ रहने वाले समुदायों के लिए अहम है बल्कि इसमें महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए ख़ास प्रावधान रखे गये हैं। गौरतलब है कि समाज में ज़मीन और जंगल के साथ सबसे अधिक जुड़ाव महिलाओं का है जो खेती बाड़ी के अलावा जलाऊ लकड़ी, पत्ती, घास, चारे एकत्रित करने के कठिन काम को संभालतीं हैं। लेकिन जब भी कोई निर्णय लेने हो या अधिकारों की बात आती है तो महिलाओं को नज़रअंदाज़ किया जाता है।
लाहौल घाटी में महिला मंडलों ने पिछले कुछ दशकों में वनों को बचाने और बढ़ाने के काम में प्राथमिक भूमिका निभायी है। जहां उन्होंने अपने खुद के वन उपयोग को भी नियंत्रित किया है। लाहौल जैसे प्राकृतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र में सामूदायिक प्रबंधन की इस पहल का यहाँ के भूगोल और जन जातीय समाज दोनों के लिए ही बहुत महत्व है। जो ग्राम सभा को अपनी वन भूमि से जुड़े निर्णय लेने का अधिकार देकर सशक्त बनाता है।
वन अधिकार कानून महिलाओं को वन भूमि पर बराबर का हकदार और दावेदार मानता है। इस कानून के क्रियान्वयन में महिलाओं के लिए ख़ास जगह बनाई गयी है। वन अधिकार समिति में कम से कम एक तिहाई महिला सदस्यों का होना अनिवार्य है; उप-मंडल स्तरीय समिति और जिला स्तरीय समिति में भी कम से कम एक महिला सदस्य का होना अनिवार्य है। इस कानून के अंतर्गत ग्राम सभा का कोरम पूरा होने के लिए एक तिहाई महिला सदस्यों का होना अनिवार्य है। साथ ही व्यक्तिगत अधिकारों का पट्टा परिवार के दोनों मुखिया – महिला और पुरुष के नाम पर जारी किया जाता है।
यदि समाज की आबादी का आधा हिस्सा महिलाएं हैं और बिना इनके श्रम के हम आगे नहीं बढ़ सकते तो महिलाओं को ज़मीन और संसाधनों पर भी पूरा अधिकार मिलना चाहिए। वन अधिकार कानून 2006 को लागू हुए 15 साल हो गए हैं लेकिन आज भी इस कानून के क्रियान्वयन में हिमाचल प्रदेश बाकी सभी राज्यों से सबसे पीछे है। प्रदेश में अभी तक 129 व्यक्तिगत व 35 सामुदायिक वन अधिकारों को मान्यता मिली है जिसमे लाहौल में 76 व्यक्तिगत मकान के पट्टे मिले हैं। दिसंबर 2018 में राज्य के जनजातीय मंत्री श्री रामलाल मार्कंडे ने विधानसभा में वादा किया था कि सरकार वन अधिकार कानून को “राज्य में मिशन मोड” में लागू करेगी परन्तु आज तक इस कानून के तहत गठित वन अधिकार समितियों और सरकारी अधिकारियों में कानून को लेकर प्रशिक्षण की कमी है। जिसके चलते वन अधिकार कानून को लेकर आज भी कई भ्रांतियां फैली हुई हैं।
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