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प्रेस नोट 07.11.22: 2022 हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों में राजनीतिक एजेंडे पर वन अधिकार क़ानून (एफआरए, 2006)
हिमाचल प्रदेश की जनता 12 नवंबर, 2022 को आगामी 14वीं विधानसभा चुनाव के लिए मतदान करने के लिए तैयार है। बुनियादी सुविधा के मुद्दे, जैसे प्रदेश में, 21% गांव आज भी सड़कों से नहीं जुड़े हैं और 12% से ज़्यादा लोग बेरोज़गार हैं, चुनावी एजेंडे में अभी भी हैं। आजीविका और कनेक्टिविटी के मुद्दों से जुड़ी हुई है, राज्य में वन अधिकार क़ानून को लागू करने की मांग।
वन अधिकार क़ानून, 2006 में भारतीय संसद में देश के वन आश्रितों की मांग के बाद पारित एक कानून है। देश भर में यह क़ानून जंगलों में और उसके आसपास रहने वाली आबादी की तीन महत्वपूर्ण जरूरतों को पूरा करता है ।1. आजीविका को मजबूत करना और उनका समर्थन करने के लिएक) कृषि और आवास के लिए कब्जे के तहत वन भूमि के अधिकार की कानूनी मान्यता (13 दिसंबर 2005 की कट ऑफ तिथि से पहले)ख) सामुदायिक उपयोग के लिए वन भूमि के अधिकारों की कानूनी मान्यता – जलाऊ लकड़ी, चारा, औषधीय पौधे, लकड़ी आदि2. वन भूमि हस्तांतरण की प्रक्रिया को विकेंद्रीकृत और आसान बनाकर स्थानीय ग्रामीण विकास में मदद – जैसे ग्राम सड़क निर्माण, पंचायत भवन, स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र, आंगनबाडी आदि3. समुदाय को जिम्मेदारी देकर समुदाय आधारित वन संरक्षण और वन संसाधनों के प्रबंधन और संरक्षण के अधिकार
हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य के लिए इस कानून के राजनीतिक महत्व पर प्रकाश डालते हुए, पिछले सप्ताह भर में हिमधरा पर्यावरण समूह सहित चंबा, सिरमौर, लाहौल स्पीति और किन्नौर के अन्य सामुदायिक संगठनों ने साथ मिलकर विभिन्न राजनीतिक दलों के उम्मीदवार अथवा कांग्रेस, भाजपा, सीपीआईएम और आप पार्टी के कार्यालय में वन अधिकार क़ानून के क्रियान्वयन को लेकर सिफारिशों के साथ एक रिपोर्ट सौंपी।
रिपोर्ट के अनुसार, “छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के राज्य विधानसभा चुनावों में, वन अधिकार एक प्रमुख मुद्दा रहा था और एफआरए को राजनीतिक दलों ने घोषणापत्र में भी शामिल किया गया था। हिमाचल में जहां भौगोलिक क्षेत्र का 2/3 भाग वन श्रेणी में है, राज्य की ग्रामीण आबादी को इस कानून से लाभ होगा”।
यह क़ानून, केंद्रीय वन कानूनों द्वारा लगाए गए सख्त प्रतिबंधों के कारण उत्पन्न बाधाओं को दूर करने के लिए है। व्यक्तिगत, सामुदायिक, सामुदायिक संसाधन अधिकारों के प्रावधानों के आधार पर, यह बुनियादी भूमि अधिकार प्रदान करता है, ग्रामीण आजीविका को मजबूत करने में और समुदाय आधारित वन संरक्षण करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इतना ही नहीं, विकास के अधिकार के प्रावधान के होने से लगभग 70% वन क्षेत्र वाले ग्रामीण पहाड़ी राज्य में स्थानीय जनकल्याण गतिविधियों को बढ़ावा देने में मददगार साबित हो सकता है। इस प्रावधान के तहत 2012 से 2019 तक 1959 से अधिक जन कल्याण के कार्यों को मंजूरी मिली। मुख्य रूप से ये अनुमतियाँ गाँव की लिंक सड़कों और स्कूलों के लिए मिली। इसी के चलते हम नाचन, सराज, किन्नौर और ठियोग में राजनीतिक उम्मीदवारों को राजनीतिक लाभ उठाते हुए देखा जा सकता है। “अभी तक राज्य सरकारों ने केवल विकास कार्यों के लिए वन भूमि हस्तांतरण के लिए इस कानून को आंशिक रूप से लागू करने में इच्छाशक्ति दिखाई है, लेकिन क़ानून के अन्य प्रावधानों को लागू करने पर कोई ध्यान नहीं दिया विशेष रूप से सीमांत और भूमिहीन किसानों के लिए व्यक्तिगत अधिकारों को धारा 3(1) के तहत मान्यता मिलने का अधिकार”।
अब तक राज्य भर में 3000 व्यक्तिगत वन अधिकार (आईएफआर) के दावे दायर किए गए हैं, जिनमें से केवल 129 पट्टों का आवंटन – चंबा और लाहौल स्पीति में हुआ। और हाल ही में एक अथक जन अभियान के बाद किन्नौर में ऐसे 300 से अधिक व्यक्तिगत मामलों को मंजूरी दी गई। व्यक्तिगत वन अधिकारों का उपयोग दशकों से राजस्व रिकॉर्ड में ‘नाजाय कब्जा” के रूप में दर्ज योग्य दावेदारों के अधिकारों का सत्यापन कर क़ानूनी मान्यता देने के लिए किया जा सकता है।
हिमधरा पर्यावरण समूह की रिपोर्ट में कहा गया है कि लगभग 70 लाख की कुल आबादी में से कम से कम 86% जनता वन अधिकार क़ानून 2006 के तहत संभावित लाभार्थी हो सकते हैं। राज्य में 55.9 लाख मतदाताओं (2022 में सूचीबद्ध मतदाता) में से, कम से कम 70% मतदाता इस क़ानून के तहत संभावित दावेदार हैं। राज्य सरकार ने 2016 तक इस कानून के कार्यान्वयन के लिए राजस्व ग्राम स्तर पर 17503 वन अधिकार समितियों (FRCs) का गठन किया। यह कानून दो प्रकार की श्रेणियों – अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वनवासियों (ओटीएफडी) को अधिकार देता है। हिमाचल में अधिकांश लाभार्थी ओटीएफडी श्रेणी में आते हैं, जिनमें अनुसूचित जाति की आबादी कम से कम एक तिहाई है। यदि हम निर्वाचन क्षेत्र के अनुसार वितरण को देखें, तो हम पाते हैं कि संभावित एफआरए दावेदार मतदाता 68 निर्वाचन क्षेत्रों में से आधे (34) में बड़ी संख्या में (60,000 से 1 लाख के बीच) मौजूद हैं। ये निर्वाचन क्षेत्र चंबा, कांगड़ा, कुल्लू, मंडी, हमीरपुर, ऊना, बिलासपुर, सोलन से लेकर सिरमौर जिलों तक फैले हुए हैं।
हिमाचल में इस क़ानून के पारित होने के 15 साल बाद भी यह प्रदेश पूरे देश में इस क़ानून को लागू करने में अन्य राज्यों से पिछड़ा है। सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने पिछले कुछ दिनों में अपने राजनीतिक घोषणापत्र जारी किए हैं। कांग्रेस और सीपीआई (एम) दोनों ने राज्य में अनुसूचित जनजातियों, अनुसूचित जातियों और अन्य सीमांत समुदायों के कल्याण के लिए वन अधिकार कानून को लागू करने का वादा किया है। हालंकि राज्य की भाजपा सरकार ने, 2018 में इस कानून को मिशन मोड में लागू करने का वादा विधान सभा सत्र के दौरान कहा था, कल अपना घोषणा पत्र जारी किया जिसमें वन अधिकार क़ानून को लागू करने को लेकर कोई उल्लेख नहीं है।
https://www.himdhara.org/wp-content/uploads/2022/11/Annexure-2.pdf
https://www.himdhara.org/wp-content/uploads/2022/11/DOC-20221105-WA0019..pdf
Press Note 07.11.22: Placing Forest Rights Act (FRA, 2006) on the political agenda of 2022 Himachal Pradesh Legislative Elections
As the people of Himachal Pradesh gear upto vote for the upcoming 14th Legislative Assembly elections on 12th November, 2022, basic welfare issues like lack of accessibility with atleast 21% villages without roads, and unemployment with about 12% of registered unemployed youth, are still on the electoral agenda. Closely tied to this issue of livelihood and connectivity is the demand for implementation of the Forest Rights Act in the state.
The Forest Rights Act is a law passed in the Indian Parliament in 2006 after popular demand from across the country. This act serves three important needs of populations that reside in and around forest areas 1. Strengthening and supporting Livelihoods bya) legal recognition of right to forest land under occupation for agriculture and habitation (prior to cut off date of 13th December 2005)b) legal recognition of rights to forest land for community uses – fuelwood, fodder, medicinal plants, timber etc2. Support local welfare development by decentralizing and easing the process of forest diversion process for transfer of forest land for village road construction, panchayat bhawans, schools, health centers, anganwadis etc3. Support community based forest conservation by giving the community the responsibility and rights for management and protection of forest resources
Highlighting the political importance of this law for a state like Himachal Pradesh, Himdhara Collective, along with other community organisations from Chamba, Sirmaur, Lahaul Spiti and Kinnaur, handed a report with recommendations to various political party candidates INC, BJP, CPIM and AAP party offices in Shimla and other districts over the last week.
According to the report, “In the state assembly elections of Chhattisgarh, Jharkhand, Maharashtra and Madhya Pradesh, forest rights became a major issue and FRA was even included in the manifestos of political parties. In Himachal where 2/3rd of the geographical area is classified as forest, a huge rural population stands to gain from this law”.
The act is meant to overcome the hurdles posed due to strct restrictions placed by central forest laws. Based on its provisions for individual, community, community resource rights, it can accord basic land rights, strengthen rural livelihood and transform community-based forest conservation. Not only that, provision for development rights can support local welfare activities in the predominantly rural mountainous state, with about 70% of land designated as forest area. With more than 3000 cases approved under this provision, since 2012, largely for village link roads and schools, we have seen political candidates in Nachan, Seraj, Kinnaur and Theog, reaping political benefits. “While state governments have shown will in implementing the law for forest land transfer for village welfare infrastructure like roads, schools etc, the other provisions especially of Individual rights for the marginal and landless farmers has not been used”.
So far 3000 Individual Forest Rights (IFR) claims have been filed across the state of which 129 titles have been distributed – in Chamba and Lahaul Spiti. And most recently over 300 such IFR cases were approved in Kinnaur after a relentless people’s campaign. The individual forest rights can be used to recognise rights of rightful eligible claimants recorded as ‘encroachers’ in revenue records since decades.
Himdhara’s report states that out of the total population of about 70 lacs, atleast 86% are potential beneficiaries under the FRA 2006. Out of 55.9 lac electors (listed voters in 2022) in the state, atleast 70% electors are potential claimants under FRA. The state government in 2016 constituted 17503 Forest Rights Committees (FRCs) at the revenue village level for the implementation of this law. The law gives rights to two categories of claimants – Scheduled Tribes and Other Traditional Forest Dwellers (OTFDs). A majority of the beneficiaries fall in the OTFD category in Himachal of which Scheduled Caste population form atleast a third part.
If we look at the constituency wise distribution, we find that voters who are potential FRA claimants exist in almost all and in large numbers (between 60000 to 1 lac) in half (34) of the 68 constituencies. These constituencies are spread across the districts from Chamba, Kangra, Kullu, Mandi, Hamirpur, Una, Bilaspur, Solan upto Sirmaur.
15 years after passing Himachal remains the worst implementer of this act in the country. All major parties have released their political manifestos in the last few days. The INC and CPI (M) have both made promises of implementing this law for the welfare of the Scheduled Tribes, Scheduled Castes and other marginalized communities in the state. The incumbent BJP, who had promised to implement the law in mission mode in 2018, released its manifesto yesterday which makes no mention of FRA.
https://www.himdhara.org/wp-content/uploads/2022/11/Annexure-2.pdf
https://www.himdhara.org/wp-content/uploads/2022/11/DOC-20221105-WA0019..pdf