17/4/2018
Shimla
Himachal Van Adhikar Manch is one of the 150 signatories of the submission made to the Ministry of Environment, Forests and Climate Change raising objections to the serious flaws in the Draft National Forest Policy 2018. The MoEFCC came out with the draft last month, for which they had comments and suggestions from concerned citizens before 14th April. In the last month a series of articles have been written in which tribal and forest rights groups and conservationists have rejected the policy on various grounds the strongest being the thrust on ‘production forestry’ and allowing entry of private companies in forestry projects for commercial plantations.
The groups have said that while there may be a need to review the old policy of 1988, this draft undoes some very important principles that the 1988 policy had put in place especially related to protection of forests and the importance of strengthening forest dependent communities and their role in this regard. ‘Strikingly important in this draft policy is the absence of the perspective and recognition that was taken in the Forest Rights Act 2006, which seeks to address the historical injustice inflicted on the adivasis and other forest dwellers through the colonization of the forest. The Act attempts to restore the forests back to its original custodians, caretakers and dependents, the adivasis and other forest dwelling people, and put in place democratic mechanisms to govern the forests’ said the memorandum. The draft policy does not recognise this.
The policy comes close to the heels of another legislation called Compensatory Afforestation Fund Act which has created an institutional mechanism for the utilisation of funds realised in lieu of forest land diverted for non-forest purpose (development projects). The objective is to mitigate impact of diversion of such forest land for dmas, mines, industries and such projects. However, the Act does not put in any safeguard for the community’s to have a say in the process of utilisation of the funds for activities on forest land by forest department despite the fact that the FRA 2006 provides for forest dwelling communities this right.
“In Himachal where close to 70% of the geographical area is technically under forest land the implementation of FRA has been poor as it is. Forest land dependent people are being evicted by being labelled encroachers. Moves like CAMPA and 2018 forest policy will further alienate people from forests and lead to conflict – as the forest department and private corporations take on plantation drives in forests where people are already dependent. ‘, adds Manshi Asher of Himdhara Collective, also a signatory to submissions rejecting the draft.
“Natural forests serve as a gene pool resource and help to maintain ecological balance. These forests need to be protected’. However, the draft National Forest Policy 2018, despite stating this objective, appears not to be for conservation and regeneration of forests but for capture of forests by private, corporate entities through PPPs, production forestry, increasing productivity of plantations, production of quality timber (and not fuelwood or fodder for communities), facilitating forest-industry interface and so on. Himachal Van Adhikar Manch, a platform of state level groups condemned the draft and said that it is facilitating the entry of the private sector in forestry. “Private sector works for profit and profit alone. The only way we understand that forests can be protected is by making those located closest to the forest incharge and strengthening sustainable forest based livelihoods’, Manch convenor Akshay Jasrotia added.
प्रेस विज्ञप्ति: 17 अप्रैल 2018
राष्ट्रीय वन नीति, 2018 पर संगठनों ने दी कड़ी प्रतिक्रिया; वनों के औद्योगीकरण का रास्ता खोलती है ननी ति, वन भूमि पर निर्भर समुदायों के हितों के खिलाफ
हिमाचल प्रदेश में वन अधिकारों पर सक्रिय ‘हिमाचल वन अधिकार मंच’ ने 150 राष्ट्रीय स्तर के स्वयंसेवी संगठनों के साथ मिलकर राष्ट्रीय वन नीति के प्रारुप पर अपनी आपत्तियां दर्ज कराई। इस प्रारुप को केन्द्रीय पर्यावरण, वन एंव जलवायु परिर्वतन मंत्रालय ने तैयार किया है और 14 अप्रैल तक जनता की टिप्पणियों के लिये साझा किया था।
1988 में बनी राष्ट्रीय वन नीति के तीन दशक बाद यह नीति बनाने की पहल मंत्रालय ने की यह सराहनीय है और वनों के बदलते हुये स्वरुप को देखते हुये भी इसकी जरुरत भी थी। लेकिन यह चिंताजनक बात है की 1988 की नीति में जो सकारात्मक प्रावधान थे- उनको मजबूत करने के बजाये नयी नीति उन पर पानी फेरने का काम करती है। नई नीति की सबसे आपत्तिजनक बात जिस पर सैंकड़ों पर्यावरणविदों और सामुदायिक संगठनों ने प्रतिक्रिया की है, यह है कि इस नीति में वानीकी उत्पाद के लिये अब निजी कम्पनीयों को आमंत्रित किया जायेगा।
1988 की नीति में सरकार ने पहली बार यह माना था की हमारे देश में वनों के दोहन से पारिस्थितिकी पर नुकसान हो रहा है और साथ ही वनों पर आश्रित समुदायों की आजीविका पर भी गलत असर पड़ रहा है। अंग्रेजों के समय से होते आ रहे दोहन को रोकने के लिये 1980 के बाद प्रयास होने लगे- 1988 की नीति में यह भी स्वीकार किया गया की वानिकी परियोजनाओं को सफल करना है तो इनकी बागडोर वन आश्रित समुदायों को देनी होगी। साथ ही वन भूमि पर कई जान जाती और समुदायों की निर्भरता को मान्यता देनी होगी यह भी बात उठी. इसी दिशा में भारत सरकार ने 2006 में एक महत्वपूर्ण कानून बनाया जिसे अनुसूचित जनजाति व अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून, 2006 या वन अधिकार कानून कहते हैं। सबसे दु:ख की बात तो यह है की 2018 की नीति वन अधिकार कानून से जुड़े प्रावधानों को अनदेखा कर वन संरक्षण को एक अलग दिशा में ले जाती है।
वन नीति का मुख्य उद्देश्य तो वनों का संरक्षण और संवर्धन बताया जा रहा है और साथ में यह बात भी की जा रही है की 1980 के दशक के बाद वनों का संवर्धन हुआ है। हांलाकि यह सही है की 1980 में वन संरक्षण कानून आने के बाद वनों का दोहन और वन भूमि के हस्तांतरण की प्रक्रिया कठिन हुई है लेकिन यह गौर करने की बात है की इस कानून के बावजूद करीबन 1२ लाख हेक्टेयर वन भूमि का हस्तांतरण हुआ है। पिछले 3 वर्षों में ही औसतन 12,200 हेक्टेयर प्रति वर्ष वन भूमि का विकास परियोजनाओं के लिये हस्तांतरण हुआ है। आश्चर्य की बात यह है कि इसके बावजूद स्टेट ऑफ फोरेस्ट रिपोर्ट, 2017 के अनुसार वनों में पिछले दो सालों में 1% की बढ़ोतरी हूई है। यह कैसे? विशेषज्ञों का मानना है की स्टेट ऑफ फोरेस्ट रिपोर्ट यह नहीं दर्शाति कि किस तरह के वनों में संवर्धन हुआ है। लेकिन यह स्पष्ट है कि कुदरती वनों का दोहन हो रहा है और फलदार बगीचे, वृक्षारोपण वाले जंगलों में बढ़ोतरी हो रही है- सवाल यह उठता है की क्या हम इन्हें (बगीचे व वृक्षारोपण) को जंगल मान सकते हैं।
राष्ट्रीय वन नीति 2018 में सरकार ने पीपीपी ( पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशीप) के जरीये अब वानीकि कार्यों में निजी कम्पनियों को निवेश करने के लिये जगह खोली है।
“पहले ही वन विभाग के उलटे सीधे पौधारोपण की परियोजनाओं से जंगल की हालत खस्ता है कई अध्ययन दिखाते हैं की चीड़ का क्षेत्रफल बढ़ रहा है। चीड़ की वजह से चारे की भारी कमी के अलावा आग की घटनाओं में भारी बढ़ोतरी भी हुई है। अब यदि निजी कम्पनीयां वानिकी कार्यों में घुसी तो मुनाफे के लिये वनों का स्वरुप और बदलेगा- इससे केवल वनों की जैव विविधता पर ही नहीं वनों पर आश्रित समुदायों की आजीविका पर भी दुष्प्रभाव पड़ेगा” प्रकाश भंडारी, हिमाचल वन अधिकार मंच ने बताया।
यदि वनों का संवर्धन और संरक्षण करना है तो इसके लिये प्रावधान पहले ही मौजूद हैं वन अधिकार कानून, 2006 में- वनों की सुरक्षा की जिम्मेदारी वन आश्रित स्थानीय समुदायों ने पहले भी निभाई है और आज भी देश में कई जगह कर रहे हैं। वन विभाग को वन भूमि के मालिक की भूमिका से हट कर तकनीकि समर्थन देने की भूमिका में लाया जाना चाहिये- तभी वनों का संरक्षण सम्भव है।
“हिमाचल में जहां 70% भौगोलिक क्षेत्र तकनीकी रूप से वन भूमि के तहत है, यहां भी वन अधिकार कानून आज ढंग से लागू नहीं किया जा रहा है। प्रदेश में वन भूमि पर निर्भर लोगों को अतिक्रमणकर्ताओं का लेबल लगाकर बेदखल किया जा रहा है। वन नीति 2018 जैसी नीतियां वनों पर आश्रित समुदायों को वनों से विमुख करेंगी और परेशानियां खड़ी करेंगी- क्योंकि वनों पर आश्रित समुदाय जिस वन भूमि पर निर्भर हैं उधर विभाग और नीजि कम्पनियां वृक्षारोपण मुहिम चलायेंगे” राष्ट्रीय वन नीति 2018 पर टिप्पणी करते हुये मांशी अशर, हिमधरा पर्यावरण समूह की सदस्या ने बताया।
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