After a decade, in a first, a detailed address on Forest Rights Act 2006 in the Legislative Assembly of Himachal Pradesh

Press Note: 14th December 2018
After a decade, in a first, a detailed address on Forest Rights Act 2006 in the Legislative Assembly of Himachal Pradesh
MLAs Rakesh Singha and Ashish Butail address the assembly

In response to consistent pressure from local communities, farmer’s groups and civil society, the Forest Rights Act 2006 finally became a subject of discussion in the State Legislative Assembly on the 14th of December when Rakesh Sigha, MLA from Theog and Ashish Butail, MLA from Palampur took the floor to raise the matter. The MLAs started their speeches referring to the protest demonstration led by the Kisaan Sabha on the 11th of December in Zoravar grounds just outside the Legislative Assembly where close to 1000 representatives from different forest rights committees in Chamba, Kangra, Lahaul and Mandi had gathered demanding the speedy implementation of the Forest Rights Act 2006. The same day a delegation of 15 representatives had met the Chief Minister and several MLAs submitted a memorandum seeking a debate in the Assembly on this issue.

It needs to be noted that Himachal Pradesh is one of the states that is lagging behind the most in the implementation of the Forest Rights Act which was passed in 2006 in the parliament to recognise rights of ‘forest dwelling’ communities on ‘forest land’. However, there have been various misconceptions about the act and its applicability, within the government which have led to delays. Singha  in his address dealing with one such misconception said, “If we the people of Himachal Pradesh are not “forest dwellers” then who is, when 67% of the land area is under forest land in Himachal Pradesh. It is the responsibility of our government to implement the act.  Himachal should have been the best implementor of the act instead we are the worst compared to other states.

Added Singha, “Under this act three types of rights are recognised – individual, community and development rights. This is especially relevant for our community rights which have been compromised by the interference of the forest department. Now this act gives 13 types of rights under community forest rights. Where we are building the Central University, people have rights there on forest land. And we are continuing to divert land under 1980 Forest Conservation Act and people are losing their rights”.

Ashish Butail followed Singha in taking forward the matter and said, “the Forest Conservation Act and the Wildlife Protection Act 1972 had become hurdles for the people dependent for their survival on forest lands whose rights have been restricted.” He read the preamble of the Forest Rights Act and spoke of how the act was to address the historical injustice which started in the colonial period that the parliament passed this Act.

Raising the apprehensions that the government had Butail questioned, “Why are we scared to implement this act? What is the fear?”. He went on, “When there is a thorough process in place to assess and verify the claims, when the law is clear on the 3 generations clause there is no need to worry about misuse, as these rights cannot be sold, they are inherited rights and pass on from generation to generation”.
In response to the address the Tribal Minister Shri Ram Lal Markande said that there are three types of committees that have been formed to look into the act implementation – the State Level Monitoring Committee, District Level Committees in each district and Sub Divisional Level Committees. Further 17,500 Forest Rights Committees have been created at the local level”. In his response he also added that uptil 30 September, 2018 under section 3(2), 1440 proposals have been approved, under which around 660 hectares of land have been diverted for the purpose of constructing schools, hospitals, anganwadis, roads etc.

Singha added that while the state government had ensured implementation of section 3(2) of the act by passing executive orders, there has been little effort on Section 3(1) which gives individual and community rights. This needs to be done.

Butail also said that despite the Ministry of Environment guideline of 2009, that no forest land diversion for large projects can take place without consent of Gram Sabha and compliance to FRA 2006, the DCs had issued NOCs for projects – these must be cancelled.

The official response also mentioned that a proposal would be introduced at the State Level Monitoring Committee  regarding facilitation of state and district level programmes for FRA’s speedy implementation, as put forth by UNDP.

“The CM in his visit to Kinnaur has in November already instructed officials to move forward. We had also issued orders for the implementation of the act to all DCs in May 2018 and will ensure that the Act is implemented in the State in a time bound manner”.

We believe that this is the first step, and a breakthrough for the people of Himachal Pradesh who have been waiting for the implementation of the law. We hope that the necessary trainings would be carried out and awareness about this act and its provisions will be spread by the government in a speedy manner

Issued by:
Akshay Jasorita, Kisan Sabha Baijnath
Prakash Bhandari, Himdhara Collective
Jiya Lal Negi, Zila Van Adhikar Samiti Kinnaur
along with representatives of Forest Rights Committees of Sirmaur, Chamba, Lahaul-Spiti, Kangra

(The above groups are also part of a loose state level platform called the Himachal Van Adhikar Manch)

प्रेस विञप्ति: 14 दिसंबर 2018
पहली बार, एक दशक के बाद, हिमाचल प्रदेश कि विधान सभा में वन अधिकार अधिनियम, 2006 के ऊपर विस्तृत चर्चा हुई
विधायक राकेश सिंघा और आशीष बुटैल ने सभा को संबोधित किया

स्थानीय समुदायों, किसानों और सामाजिक संगठनों द्वारा लगातार दबाव के चलते, अंततः वन अधिकार अधिनियम 2006, 14 दिसंबर को राज्य विधान सभा में चर्चा का विषय बन गया, जब ठियोग के विधायक राकेश सिघा और पालमपुर के विधायक आशीष बुटैल ने इस मामले को सदन में उठाया। विधायकों ने अपने भाषणों में 11 दिसंबर को किसान सभा के नेतृत्व में विधानसभा के बाहर ज़ोरावार मैदान में किये गये विरोध प्रदर्शन का जिक्र किया, जहां चंबा, कंगड़ा, लाहौल और मंडी के विभिन्न वन अधिकार समितियों के करीब 1000 प्रतिनिधियों ने मांग की थी वन अधिकार अधिनियम 2006 के कार्यान्वयन में तेजी लाई जाये। उसी दिन 15 प्रतिनिधियों के एक प्रतिनिधिमण्डल ने मुख्यमंत्री और कई विधायकों से मुलाकात कर इस मुद्दे पर विधान सभा में बहस करने की मांग को लेकर ज्ञापन प्रस्तुत किया।

यह ध्यान देने वाली बात है कि हिमाचल प्रदेश उन राज्यों में से एक है जो वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन में पीछे रहा है, इस अधिनियम को 2006 में ‘वन भूमि’ पर निर्भर ‘वन आश्रित’ के अधिकारों को स्वीकार कर संसद में पारित किया गया था। हालांकि, सरकार के भीतर इस अधिनियम के बारे में अलग-अलग गलतफहमियां हैं, जिस कारण इस अधिनियम के कार्यन्वयन में देरी आयी है। सिंघा ने इस तरह कि एक गलत धारणा से निपटने के लिये अपने संबोधन में कहा “अगर हम हिमाचल प्रदेश के लोग “वन निवासी” नहीं हैं तो कौन हैं, जब हिमाचल प्रदेश का 67% भूमि का क्षेत्र वन भूमि के अन्दर आता है। हमारी सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि इस अधिनियम को लागू करवाये। हिमाचल में इस अधिनियम का कार्यान्वयन सबसे अच्छे से होना चाहिये था जबकि हम अन्य राज्यों कि तुलना में सबसे खराब रहे हैं”।

सिंघा ने जोड़ते हुये बोला, ” इस अधिनियम के तह्त तीन प्रकार के अधिकारों को मान्यता मिली है- व्यक्तिगत, सामुदायिक और विकास के अधिकार। यह विशेष रुप से हमारे सामुदायिक अधिकारों के लिये प्रासंगिक है, जिनपर वन विभाग के दखल के चलते समझौता किया गया है। अब यह अधिनियम, सामुदायिक वन अधिकारों के तहत विभिन्न 13 अधिकार देता है। जिधर हम केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनाने जा रहे हैं, उस वन भूमि पर भी लोगों के अधिकार हैं। और हम वन संरक्षण अधिनियम 1980 के तहत वन भूमि का हस्तांतरण करना जारी रखे हैं और लोग अपने अधिकारों को खो रहे हैं।

आशीष बुटैल ने मुद्दे को आगे बढ़ाते हुये कहा ” वन संरक्षण अधिनियम और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 उन लोगों के लिए बाधा बन गया था जो वन भूमि पर अपने अस्तित्व के लिए निर्भर थे, क्योंकि उनके अधिकारों पर प्रतिबंध लग गया। बुटैल ने वन अधिकार अधिनियम, की प्रस्तावना पढ़ते हुये बताया कि कैसे यह अधिनियम अंग्रेजों के वक्त से चले आ रहे ऐतिहासिक अन्याय को बंया करता है, जिसे संसद ने पारित किया”।
सरकार द्वारा जतायी गयी चिन्ताओ पर वुटैल ने सवाल उठाये, ” क्यों हम इस अधिनियम को लागू करने से डर रहे हैं? किस बात का डर है?। वो अपनी बात जारी रखते हुये बोले “जब दावों के आंकलन और स्तायापन कि एक पूरी प्रक्रिया है, जव कानून तीन पीढ़ियों के आधार पर स्पष्ट है तो दुरुपयोग करने की चिंता कि जरुरत नहीं है, क्योंकि इन अधिकारों को बेचा नहीं जा सकता, ये वंशागत अधिकार हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी जारी रहते हैं।

उठाये गये मुद्दों का जवाब देते हुये जनजाति मंत्री राम लाल मारकण्डे ने बताया कि इस कानून के कार्यान्वयन के लिये तीन तरह की कमेटियों का गठन किया गया है- राज्य स्तरीय निगरानी समिति, हर जिले में जिला स्तरीय समिति और उप मंडलीय स्तरीय समिति। साथ ही स्थानीय स्तर पर 17,500 वन अधिकार समितियों का गठन किया गया है”।  अपने जवाब में जोड़ते हुये बताया कि 30 सितम्बर 2018 तक धारा 3(2) के तहत, 1440 प्रस्तावों को मंजूरी दी गयी, जिसके अन्दर 660 हेक्टेयर भूमि को विद्यालयों, अस्पतालों, आंगनबाड़ी, सड़कों आदि के लिये हस्तांतरित किया गया है।

सिंघा ने कहा कि राज्य सरकार ने कार्यकारी आदेश पारित करके अधिनियम की धारा 3 (2) के कार्यान्वयन को सुनिश्चित किया है, लेकिन धारा 3 (1) पर कुछ भी प्रयास नहीं किया गया है जो व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकार देता है। यह करने की जरूरत है।

बुटैल ने यह भी कहा कि पर्यावरण मंत्रालय के 2009 के  दिशा-निर्देशों के बावजूद, बड़ी परियोजनाओं के लिए किसी भी वन भूमि का हस्तांतरण ग्राम सभा की सहमति के बिना और वन अधिकार अधिनियम 2006 के अनुपालन के बिना नहीं हो सकता है, लेकिन फिर भी कई जिलों के डीसी ने परियोजनाओं के लिए एनओसी जारी किए थे – जिन्हें रद्द कर दिया जाना चाहिए।

आधिकारिक प्रतिक्रिया में यह भी बताया गया है कि यूएनडीपी द्वारा प्रस्तुत वन अधिकार अधिनियम के त्वरित कार्यान्वयन के लिए राज्य स्तरीय निगरानी समिति में राज्य और जिला स्तर के कार्यक्रमों की सुविधा के संबंध में एक प्रस्ताव पेश किया जाएगा।

“माननीय मुख्यमंत्री महोदय के हाल ही में 2 नवम्बर 2018 के किन्नौर दौरे के दौरान उन्होंने वन अधिकार अधिनियम, 2006 के प्रभावी क्रियान्वयन की घोषणा की है, तदानुसार सभी उपायुक्तों को अधिनियम के शीघ्र क्रियान्वयन के दिशा निर्देश जारी किये हैं”।

हमारा मानना है कि यह पहला कदम है, और हिमाचल प्रदेश के लोगों के लिए एक सफलता  है जो इस अधिनियम के कार्यान्वयन का इंतजार कर रही है। हमें आशा है कि इस अधिनियम की जानकारी के लिये सरकार द्वारा आवश्यक प्रशिक्षण किए जाएंगे और जागरूकता कार्यक्रम किये जायेंगे जिससे इसके प्रावधानों को शीघ्रता से फैलाया जा सके।

जारी कर्ता :
अक्षय जसरौटिया, किसान सभा बैजनाथ
प्रकश भण्डारी, हिमधरा समूह
जिया लाल नेगी, जिला वन अधिकार समिति किन्नौर
सिरमौर, चंबा, लाहौल-स्पीति, कंगड़ा के वन अधिकार समितियों के प्रतिनिधियों के साथ

(यह सभी समूह/संगठन राज्य स्तरीय मंच – ‘हिमाचल वन अधिकार मंच’ – का भी हिस्सा हैं)

Newslinks

https://www.tribuneindia.com/news/himachal/assembly-in-session/698474.html

https://m.jagran.com/himachal-pradesh/dharmshala-vidhansabha-winter-session-18748269.html

Himachal to implement Forest Rights Act in mission mode

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